नई दिल्ली: एक तरफ जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय पेशेवरों के बीच लोकप्रिय H-1B वीज़ा पर $100,000 (लगभग 83 लाख रुपये) का भारी-भरकम शुल्क लगाकर सबको चौंका दिया है, वहीं दूसरी तरफ भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल व्यापार समझौते पर अगले दौर की बातचीत के लिए 22 सितंबर को अमेरिका पहुँच रहे हैं।
इन दो बड़ी घटनाओं ने भारत-अमेरिका के व्यापारिक और कूटनीतिक संबंधों में एक नई हलचल पैदा कर दी है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
क्या है H-1B वीज़ा पर ट्रंप का नया दांव?
शुक्रवार को राष्ट्रपति ट्रंप के एक ऐलान ने टेक जगत में तहलका मचा दिया। उन्होंने कुशल कामगारों के परमिट की लागत में 50 गुना तक की बढ़ोतरी करते हुए इसे $100,000 करने की घोषणा की। इस फैसले के बाद सिलिकॉन वैली से लेकर भारत तक हड़कंप मच गया। कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को देश से बाहर यात्रा न करने की सलाह दी, जबकि विदेशों में मौजूद कर्मचारी अमेरिका वापस लौटने के लिए परेशान हो गए।
हालांकि, मचे बवाल के बाद शनिवार को व्हाइट हाउस ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि यह शुल्क केवल नए आवेदकों पर एक बार ही लागू होगा। फिर भी, इस कदम ने उस H-1B पाइपलाइन को लगभग बंद कर दिया है, जो दशकों से लाखों भारतीयों के ‘अमेरिकी सपने’ को साकार करने और अमेरिकी उद्योगों को प्रतिभाशाली प्रोफेशनल्स देने का सबसे बड़ा ज़रिया रही है।
दिलचस्प बात यह है कि आंकड़ों के अनुसार यह नया शुल्क अव्यावहारिक लगता है। 2023 में, H-1B पर काम शुरू करने वाले नए कर्मचारियों का औसत वेतन $94,000 था। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई कर्मचारी अपने वेतन से ज़्यादा का वीज़ा शुल्क कैसे भरेगा?
पीयूष गोयल का सधा हुआ जवाब और भारत का रुख
अमेरिका रवाना होने से ठीक पहले, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने ट्रंप के इस कदम पर सधी हुई प्रतिक्रिया दी। उन्होंने एक वीडियो संदेश में कहा, “दुनिया के अलग-अलग देश भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते करना चाहते हैं… वे भारत के साथ व्यापार बढ़ाना चाहते हैं।”
फिर मुस्कुराते हुए उन्होंने आगे कहा, “वे हमारे टैलेंट से थोड़ा डरते भी हैं। हमें इससे भी कोई आपत्ति नहीं है।”
उन्होंने भारतीय प्रतिभाओं से आग्रह किया कि वे “भारत आएं, यहीं इनोवेशन करें, यहीं डिज़ाइन करें,” जिससे अर्थव्यवस्था और तेज़ी से बढ़ेगी। उन्होंने भारत की 7.8% की पहली तिमाही की विकास दर का भी ज़िक्र किया, जो अर्थशास्त्रियों के अनुमान से कहीं ज़्यादा थी। उन्होंने कहा कि भारत 2047 तक ‘विकसित भारत’ बनने के लक्ष्य को ज़रूर हासिल करेगा।
पीयूष गोयल का यह दौरा व्यापार वार्ता को तेज़ करने के लिए हो रहा है, जो टैरिफ को लेकर अगस्त में रुक गई थी। 16 सितंबर को अमेरिकी सहायक व्यापार प्रतिनिधि ब्रेंडन लिंच के नेतृत्व में एक अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने मुख्य वार्ताकार राजेश अग्रवाल की अध्यक्षता में भारतीय अधिकारियों से मुलाकात की थी, जिसके बाद दोनों पक्षों ने बातचीत को “सकारात्मक” बताया था।
नुक़सान अमेरिका को ज़्यादा या भारत को?
यह फैसला भले ही पहली नज़र में भारत के लिए एक झटके जैसा लगे, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके दूरगामी प्रभाव अमेरिका के लिए ज़्यादा हानिकारक हो सकते हैं।
- अमेरिका पर असर:
- टैलेंट की कमी: भारतीय मूल के लोग आज गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और आईबीएम जैसी कंपनियों के शीर्ष पदों पर हैं। अमेरिका में लगभग 6% डॉक्टर भारतीय हैं। इस फैसले से अस्पतालों में डॉक्टरों, विश्वविद्यालयों में STEM छात्रों और स्टार्टअप्स में इनोवेटर्स की भारी कमी हो सकती है।
- नवाचार को झटका: कैटो इंस्टीट्यूट के डेविड बियर ने बीबीसी को बताया कि यह अमेरिकी नवाचार और प्रतिस्पर्धात्मकता के लिए एक “विनाशकारी झटका” होगा। कंपनियाँ अपना काम ऑफ़शोर करने पर मजबूर होंगी।
- आर्थिक नुक़सान: H-1B वीज़ा धारक और उनके परिवार अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सालाना लगभग $86 बिलियन का योगदान करते हैं। इस प्रतिभा के पलायन से यह योगदान भी ख़त्म हो जाएगा।
- भारत पर असर:
- IT सेक्टर की चुनौती: भारत के $283 बिलियन के आईटी सेक्टर के लिए यह एक चुनौती है, जिसका आधा से ज़्यादा राजस्व अमेरिका से आता है। नैसकॉम का मानना है कि इससे कुछ ऑनशोर प्रोजेक्ट्स में बाधा आ सकती है। टीसीएस और इंफोसिस जैसी बड़ी कंपनियाँ पहले से ही स्थानीय कार्यबल बनाकर और काम को ऑफ़शोर शिफ्ट करके इसकी तैयारी कर रही हैं।
- छात्रों में बेचैनी: अमेरिका में हर चार में से एक अंतरराष्ट्रीय छात्र भारतीय है। नॉर्थ अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ़ इंडियन स्टूडेंट्स के संस्थापक सुधांशु कौशिक के अनुसार, इस फैसले से भारतीय छात्रों में भारी निराशा है और वे अब कनाडा या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों का रुख कर सकते हैं, जहाँ स्थायी जड़ें जमाना आसान है।
कुल मिलाकर, ट्रंप का यह फैसला विदेशी कामगारों पर टैक्स लगाने से ज़्यादा अमेरिकी कंपनियों और अर्थव्यवस्था के लिए एक ‘स्ट्रेस टेस्ट’ जैसा है। अब यह देखना होगा कि कंपनियाँ इस चुनौती से कैसे निपटती हैं और क्या अमेरिका इनोवेशन और टैलेंट में अपनी बादशाहत बनाए रख पाता है या नहीं।
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