बेंगलुरु: कोरोना महामारी (Covid-19) का वो दौर शायद ही कोई भूल पाया हो, जिसने हंसते-खेलते परिवारों को उजाड़ दिया था। कर्नाटक राज्य बाल अधिकार आयोग के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 233 बच्चों ने इस महामारी में अपने माता-पिता दोनों को खो दिया। समय के साथ, इनमें से 232 बच्चों को या तो उनके रिश्तेदारों ने अपना लिया या उन्हें कोई न कोई परिवार (foster family) मिल गया। लेकिन, एक बच्चा ऐसा भी था, जिसका इंतजार कभी खत्म नहीं हुआ।
जब महामारी जंगल की आग की तरह फैल रही थी, तब धारवाड़ का एक 17 वर्षीय किशोर सरकारी देखभाल केंद्र में भेजा गया। आज, महामारी की शुरुआत के पांच साल बाद भी, यह कोविड अनाथ वह जगह नहीं पा सका जिसे वह अपना ‘घर’ कह सके। लेकिन, जीवन की इन मुश्किल लहरों के बीच, इस लड़के ने हार नहीं मानी और आज अपने दम पर अपना भविष्य संवार रहा है।
मिलिए राकेश से: संघर्ष की जीती-जागती मिसाल
मिलिए राकेश चंद्रशेखर शेट्टी से, जो अपनी हिम्मत के दम पर आज बेंगलुरु की प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी (Presidency University) में इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष के छात्र हैं। राकेश फिलहाल अपने कॉलेज के पास एक किराए के मकान में रहते हैं और छुट्टियों के दौरान अपने स्कूल के दोस्तों के घरों में समय बिताते हैं।
राकेश मूल रूप से धारवाड़ के रहने वाले हैं। जब कोविड की दूसरी लहर आई, तब वे आईटीआई (ITI) के प्रथम वर्ष में थे। उनकी जिंदगी में दुखों का पहाड़ तो बहुत पहले ही टूट चुका था; जब वे मात्र 10 साल के थे, तभी उनके पिता का साया सिर से उठ गया था। इसके बाद वे अपनी मां के साथ किराए के मकान में रहते थे।
मां का सपना और वह काली रात
राकेश की मां ने अपने बेटे को एक बेहतर जीवन देने के लिए दिन-रात एक कर दिया था। उन्होंने छोटे होटलों में बर्तन धोने से लेकर, सुरक्षा गार्ड (Security Guard) की नौकरी और खेतों में मजदूरी तक की। लेकिन अप्रैल 2021 में आई कोरोना की दूसरी लहर ने उनकी मां को भी उनसे छीन लिया।
राकेश उस दौर को याद करते हुए बताते हैं, “मैं पूरी तरह टूट चुका था। मां के निधन के बाद मैं खुद भी कोविड पॉजिटिव हो गया और एक महीने तक क्वारंटाइन रहा। वो दिन बहुत भयानक थे, मैं किराए के कमरे में बस अकेला बैठा रहता था, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।”
जब अपनों ने फेरा मुंह, तब सरकार बनी सहारा
हैरानी की बात यह थी कि राकेश के रिश्तेदार होते हुए भी, कोई उन्हें अपनाने को तैयार नहीं था। एक दूर के रिश्तेदार की मदद से वे शुरुआत में ‘दर्शना ओपन शेल्टर’ पहुंचे, जहाँ से बाद में उन्हें धारवाड़ के सरकारी बाल मंदिर (Bala Mandir) भेज दिया गया।
राकेश कहते हैं, “तब मुझे एहसास हुआ कि दुनिया में अच्छे लोग भी हैं। बाल मंदिर ही मेरा परिवार बन गया। राज्य के बाल संरक्षण विभाग ने तब से लेकर अब तक मेरा हर कदम पर साथ दिया है।” अपने फौलादी इरादों के साथ, राकेश ने तूफानों का सामना किया, अपनी आईटीआई पूरी की और अब बी.टेक (B.Tech) कर रहे हैं।
मंत्रियों ने उठाया पढ़ाई का खर्च, मर्चेंट नेवी है लक्ष्य
राकेश का सपना मर्चेंट नेवी (Merchant Navy) में शामिल होने का है। वे कहते हैं, “मेरी मां हमेशा मुझे जीवन में सफल देखना चाहती थीं। मैं उनके सपने को पूरा करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा हूं। मैंने सबसे बुरा वक्त देख लिया है, अब जिंदगी चाहे जो चुनौती दे, मैं तैयार हूं।”
राकेश को ‘पीएम-केयर्स’ (PM-Cares) योजना के तहत 5,000 रुपये का मासिक वजीफा मिलता है और 23 साल का होने पर उन्हें 10 लाख रुपये की अतिरिक्त राशि मिलेगी। अच्छी खबर यह है कि उन्हें अपनी कॉलेज फीस की चिंता नहीं करनी पड़ती। राज्य के श्रम मंत्री संतोष लाड और केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी उनकी पढ़ाई का पूरा खर्च उठा रहे हैं।
आंकड़ों में विरोधाभास
जहाँ एक तरफ राकेश जैसे बच्चे संघर्ष कर रहे हैं, वहीं सरकारी आंकड़ों में कुछ अंतर भी देखने को मिलता है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के अनुसार, कर्नाटक में कोविड के कारण 573 बच्चों ने अपने माता-पिता को खोया है। वहीं, कर्नाटक बाल अधिकार संरक्षण आयोग का कहना है कि ऐसे बच्चों की संख्या 233 है। आयोग के अनुसार, सबसे अधिक मामले बेंगलुरु शहरी (32) और बेलगावी (22) में दर्ज किए गए थे।
राकेश की कहानी उन सभी के लिए एक प्रेरणा है जो मुश्किलों के आगे घुटने टेक देते हैं। घर न मिलने का दर्द सीने में दबाए, यह युवा आज अपनी मेहनत से अपनी किस्मत खुद लिख रहा है।
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