comScore ओपिनियन: बिहार चुनाव के नतीजों ने पत्रकारों को क्यों चौंकाया? भाजपा की 'सुनामी' और भविष्य के चुनावों के संकेत - Vibes Of India

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ओपिनियन: बिहार चुनाव के नतीजों ने पत्रकारों को क्यों चौंकाया? भाजपा की ‘सुनामी’ और भविष्य के चुनावों के संकेत

| Updated: November 18, 2025 16:10

बिहार चुनाव: 202 सीटों की 'सुनामी' को क्यों नहीं भांप पाए पत्रकार? जानिये भाजपा की जीत का 'सीक्रेट फॉर्मूला'

बिहार चुनाव के नतीजे जिस दिन आए, उसी दिन मेरी एक रिपोर्ट पर एक पाठक, संकल्प (@sankalp6872), ने बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने लिखा: “कभी न कभी तो भाजपा का अपना सीएम होगा ही, लेकिन इस अवसरवादी राजनीतिक पंडितों की पोल खुलनी चाहिए। आखिर ऐसा कैसे हुआ कि इन ‘अनुभवी’ पत्रकारों में से कोई भी इतनी बड़ी ‘सुनामी’ को आते हुए नहीं देख पाया… जनता की नब्ज को समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन, योगेंद्र यादव के चश्मे से दुनिया देखने पर यह संभव नहीं हो पाता।”

मुझे स्वीकार करना होगा कि यह पढ़कर मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन, हम पत्रकारों की नाकामियों के लिए योगेंद्र यादव को क्यों दोषी ठहराया जाए? संकल्प की बात में दम था। हम में से कई लोगों ने यह तो माना था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को इस चुनाव में ‘बढ़त’ हासिल है, लेकिन किसी ने भी ऐसी ‘सुनामी’ की उम्मीद नहीं की थी।

अमित शाह का अनुमान और आंकड़ों का खेल

सबसे पहले मैं एक बहाने से शुरुआत करता हूं। चुनाव परिणाम ने केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह को भी चौंका दिया होगा। नतीजों से कुछ दिन पहले ही, पार्टी सांसद अनिल बलूनी के ईगास उत्सव समारोह में, शाह ने पत्रकारों से दावा किया था कि एनडीए 160 सीटें हासिल करेगा। लेकिन अंतिम आंकड़ा 202 तक पहुंच गया। वे भी एक हल्की लहर की उम्मीद कर रहे थे, सुनामी की नहीं।

ऐसा नहीं था कि इस चुनाव में जातिगत कारक या पहचान की राजनीति पिघल गई थी और पत्रकार इसे देख नहीं पाए। भाजपा, राष्ट्रीय जनता दल (RJD), कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी (RV) और अन्य के वोट शेयर पर नज़र डालें, तो उन्होंने कमोबेश वही हासिल किया जो 2020 के विधानसभा चुनाव में किया था।

केवल नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) ने 2020 के मुकाबले अपने वोट शेयर में लगभग 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी की, लेकिन यह बिहार की जाति-केंद्रित राजनीति में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं है। अगर सही मायनों में देखा जाए, तो ‘सुनामी’ 2024 के लोकसभा चुनाव में ही आ चुकी थी, जब चिराग पासवान की वापसी की बदौलत एनडीए के लिए वोटों का एकीकरण हुआ था।

2020, 2024 और 2025 के चुनावों में पार्टियों द्वारा जीती गई सीटों के वोट शेयर का विश्लेषण स्थिति को स्पष्ट करता है:

  • भाजपा: 2020 विधानसभा चुनाव में 42.6% वोट मिले, जो 2024 लोकसभा चुनाव में बढ़कर 49.3% हो गए और 2025 विधानसभा चुनाव में 48.6% रहे।
  • जेडी(यू): इनके आंकड़े क्रमशः 32.8% (2020), 46.7% (2024) और 46.3% (2025) रहे।
  • आरजेडी: तेजस्वी यादव की पार्टी के आंकड़े थे: 39% (2020), 39.7% (2024) और 38.9% (2025)।

चिराग पासवान: जीत के ‘की-फैक्टर’

चिराग पासवान की एनडीए में वापसी और गठबंधन के दलों के बीच वोटों के कुशल ट्रांसफर के कारण, सत्ताधारी गठबंधन ने 2024 के लोकसभा चुनाव में ही अपने वोट बैंक को मजबूत कर लिया था। यही मजबूती विधानसभा चुनाव में सीटों में तब्दील हुई। एनडीए के पास एक बड़ा सामाजिक गठबंधन था, जिसमें अति पिछड़ा वर्ग, गैर-यादव ओबीसी, दलित और उच्च जातियां शामिल थीं, जिन्होंने इस भारी जीत की पटकथा लिखी।

अब सवाल उठता है कि नतीजों से पहले यह सारा ज्ञान कहां था? इसका दोष उस ‘पुष्टिकरण पूर्वाग्रह’ (confirmation bias) को दिया जा सकता है, जिससे बचने के लिए हम पत्रकार संघर्ष करते हैं। हमने नीतीश कुमार की गलतियों और उनके अजीब बयानों की एक श्रृंखला देखी। उनके शासन में मजबूत आर्थिक विकास के आधिकारिक आंकड़ों के बावजूद, नौ बार के सीएम की राजनीति और शासन आम धारणा में प्रेरणाहीन और स्वार्थी लग रहा था।

फिर प्रसिद्ध चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी थे, जिन्होंने नीतीश और एनडीए के लिए विनाश की भविष्यवाणी की थी। 2021 में उनकी उस भव्य घोषणा को कौन भूल सकता है कि यदि भाजपा पश्चिम बंगाल में 100 से अधिक सीटें जीतती है, तो वह चुनाव परामर्श छोड़ देंगे? इन सबने मिलकर एक धारणा बना दी कि इतने वर्षों बाद लोग बदलाव चाहते होंगे।

जमीनी रिपोर्टिंग के दौरान लोग नीतीश का समर्थन तो कर रहे थे—चाहे वह 10,000 रुपये के लिए हो या सामाजिक गठबंधन के लिए—लेकिन इससे यही लगा कि वे शायद किसी तरह जीत जाएंगे, लेकिन ऐसी एकतरफा जीत की उम्मीद किसी को नहीं थी।

भविष्य के चुनावों के लिए ‘सीक्रेट रेसिपी’

बिहार से मिले इन सबकों को हम अगले साल की शुरुआत में होने वाले चार राज्यों—पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल—और पुडुचेरी के चुनावों पर कैसे लागू कर सकते हैं? भाजपा के नजरिए से देखें तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने विधानसभा चुनावों में जीत का एक गुप्त फॉर्मूला खोज लिया है।

भारी सत्ता विरोधी लहर (anti-incumbency) के खिलाफ जीत के पैमाने के मामले में बिहार अकेला नहीं है। मध्य प्रदेश (2023), हरियाणा (2024) और महाराष्ट्र (2024) के नतीजों को देखिए—एमपी में 230 में से 163 सीटें, हरियाणा में 90 में से 48, और महाराष्ट्र में 288 में से भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी 132 सीटें (एनडीए के लिए 232)।

इन राज्यों और बिहार के नतीजों में क्या समानता है? सफलता के इस नुस्खे का पहला और शायद सबसे शक्तिशाली घटक है—चुनाव की पूर्व संध्या पर महिलाओं को नकद हस्तांतरण।

  • मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना
  • हरियाणा में लाडो लक्ष्मी योजना
  • महाराष्ट्र में माझी लाडकी बहिन योजना
  • बिहार में महिला रोजगार योजना

हालांकि, गुजरात (2022) में भाजपा ने रेवड़ी राजनीति का सहारा लिए बिना 182 में से 156 सीटें जीती थीं, लेकिन गुजरात नरेंद्र मोदी के समय से ही एक अलग मामला (outlier) रहा है।

मुफ्त योजनाओं (Freebie) का नया हथियार

जब 2023 में कांग्रेस ने अपनी पांच ‘गारंटियों’ के दम पर कर्नाटक में भाजपा को हराया, तभी मोदी-शाह ने विपक्ष को उसी की दवा चखाने का फैसला किया। नकद हस्तांतरण और मुफ्त सुविधाएं अब चुनावों में भाजपा की यूएसपी (USP) बन गई हैं। सवाल है कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें यह काम क्यों नहीं कर पाईं? जवाब है—राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में विश्वास और विश्वसनीयता का संकट।

हिमाचल और कर्नाटक में लोगों ने कांग्रेस के प्रस्तावों पर इसलिए भरोसा किया क्योंकि तब तक पीएम मोदी ‘रेवड़ी संस्कृति’ के खिलाफ थे। लेकिन जैसे ही भाजपा ने इसे अपनाया, कांग्रेस के प्रति मतदाताओं का अविश्वास हावी हो गया।

भाजपा की सफलता के नुस्खे का दूसरा घटक है—विशाल सामाजिक गठबंधन बनाना। देखिए कि कैसे भाजपा हर राज्य में विशेष जातियों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ रही है। इसके अलावा पीएम मोदी की अपील, आरएसएस का आधार, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और संगठनात्मक ताकत तो है ही।

क्षेत्रीय क्षत्रपों की चुनौती

पीएम मोदी ने अपने विजय भाषण में कहा, “गंगा बिहार से होते हुए बंगाल जाती है। और बिहार की जीत ने बंगाल में हमारी जीत का रास्ता साफ कर दिया है।” लेकिन उन्होंने यह अनदेखा कर दिया कि गंगा झारखंड से भी होकर जाती है, जहां पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को जेएमएम के हेमंत सोरेन के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। क्षेत्रीय दल अभी भी भाजपा के लिए एक कठिन चुनौती बने हुए हैं।

अब चुनावी राज्यों में भाजपा के विरोधियों को देखिए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है। भाजपा ने वहां राजवंशी और मतुआ समुदाय (जो दलितों का 36% हैं) और आदिवासियों को लुभाने की कोशिश की। 2019 में इस रणनीति ने काम किया और भाजपा ने 18 लोकसभा सीटें जीतीं।

लेकिन ममता ने इसका जवाब उन समुदायों के लिए कल्याणकारी योजनाओं और ‘नारायणी बटालियन’ के गठन से दिया। 2024 के लोकसभा चुनाव में, भाजपा कूच बिहार जैसी सीटों पर टीएमसी से हार गई। महिलाओं को नकद हस्तांतरण के मामले में भी ममता आगे रहीं। उन्होंने ‘लक्ष्मी भंडार’ योजना के तहत सामान्य वर्ग के लिए राशि 500 से बढ़ाकर 1,000 रुपये और दलित/आदिवासी समुदायों के लिए 1,000 से 1,200 रुपये कर दी। अगर चुनाव से पहले इसमें और बढ़ोतरी हो, तो हैरान मत होइएगा।

दक्षिण और पूर्वोत्तर का गणित

तमिलनाडु में भाजपा केवल मोदी की अपील और हिंदुत्व पर निर्भर नहीं है। कभी ब्राह्मण-हिंदी पार्टी मानी जाने वाली भाजपा अब वहां पिछड़ी जातियों के नेताओं को सशक्त बना रही है। प्रदेश अध्यक्ष नैनार नागेंद्रन (थेवर), उनके पूर्ववर्ती अन्नामलाई (गाउंडर), एल मुरुगन (दलित) और तमिलिसाई सुंदरराजन (नादर)—यह सब भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा है।

हालांकि, तमिलनाडु में अभी भी भाजपा को लंबा रास्ता तय करना है। उसे एआईएडीएमके के सहारे की जरूरत है, जो खुद आंतरिक कलह से जूझ रही है। अभिनेता विजय का राजनीति में आना सत्ता विरोधी वोटों को बांट सकता है, जिससे एमके स्टालिन को फायदा हो सकता है। केरल में भी भाजपा नायर और एझावा समुदायों में पैठ बना रही है, लेकिन 46% अल्पसंख्यक आबादी वाले राज्य में राह आसान नहीं है।

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के लिए बिहार के नतीजे सुखद हैं। केवल इसलिए नहीं कि उनकी ध्रुवीकरण की राजनीति काम कर रही है, बल्कि इसलिए कि उनका मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है। सरमा की व्यक्तिगत लोकप्रियता और कल्याणकारी योजनाएं मजबूत हैं, और सामने कमजोर विपक्ष उनकी जीत की राह आसान कर सकता है।

डिस्क्लेमर: यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया था और यहाँ इसका हिंदी अनुवाद और रूपांतरण प्रस्तुत किया गया है। लेखक डी.के. सिंह, द प्रिंट में पॉलिटिकल एडिटर हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।

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