नई दिल्ली – केंद्र सरकार ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के लिए सल्फर उत्सर्जन नियंत्रण के नियमों में बड़ी राहत दी है। सरकार के मुताबिक इस कदम से बिजली की कीमत 25–30 पैसे प्रति यूनिट तक कम हो सकती है, जिससे उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा।
हाल ही में जारी गजट अधिसूचना के तहत, 2015 में बनाए गए फ्लू-गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) सिस्टम लगाने के नियमों को सीमित कर दिया गया है। अब यह अनिवार्यता केवल उन संयंत्रों पर लागू होगी जो 10 किलोमीटर के दायरे में एक मिलियन से अधिक आबादी वाले शहरों के पास स्थित हैं।
इसके अलावा, अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों या “नॉन-अटेनमेंट” शहरों के पास स्थित संयंत्रों की स्थिति अलग-अलग आधार पर जांची जाएगी। बाकी लगभग 79% ताप विद्युत क्षमता वाले संयंत्रों को FGD लगाने की अनिवार्यता से छूट दी गई है।
सरकार ने कहा है कि यह निर्णय व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर लिया गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), IIT दिल्ली, CSIR-NEERI और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (NIAS) के अध्ययनों में पाया गया कि भारत के ज्यादातर हिस्सों में सल्फर डाइऑक्साइड का स्तर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों (NAAQS) के भीतर है।
कई शहरों में सल्फर ऑक्साइड का स्तर 3 से 20 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच मापा गया, जबकि NAAQS की सीमा 80 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है।
अधिकारियों के मुताबिक भारत के कोयले में सल्फर की मात्रा 0.5% से भी कम होती है, और संयंत्रों की ऊंची चिमनियां तथा अनुकूल मौसमीय परिस्थितियां सल्फर डाइऑक्साइड के फैलाव में मदद करती हैं। ऐसे में सार्वभौमिक FGD अनिवार्यता लगाने से बहुत कम पर्यावरणीय लाभ होगा जबकि लागत काफी अधिक होगी।
NIAS के एक अध्ययन में चेतावनी दी गई थी कि अगर पूरे देश में FGD लगाया जाए तो 2025 से 2030 के बीच अतिरिक्त 69 मिलियन टन CO₂ उत्सर्जन होगा, क्योंकि इससे चूना पत्थर की खदानों से खनन, परिवहन और ऊर्जा खपत बढ़ेगी।
सरकार ने यह भी कहा कि FGD लगाने की अनुमानित लागत 2.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक आंकी गई थी (लगभग 1.2 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट), और एक यूनिट पर इंस्टॉलेशन में 45 दिन तक लग सकते थे। पावर प्रोड्यूसर्स पहले ही चेतावनी दे चुके थे कि इससे बिजली की लागत बढ़ेगी और पीक सीजन में ग्रिड स्थिरता भी खतरे में पड़ सकती है।
उद्योग जगत ने इस फैसले का स्वागत किया है।
एक प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “यह एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक निर्णय है जो अनावश्यक खर्च बचाएगा और नियमों को वहां लागू करेगा जहां सबसे अधिक जरूरत है। सबसे अहम बात यह है कि इससे बिजली सस्ती रहेगी।”
सरकारी अधिकारियों ने जोर दिया कि यह कोई पीछे हटना नहीं बल्कि साक्ष्य आधारित “पुनर्संतुलन” (recalibration) है।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “हम पर्यावरण सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन अब हमारा दृष्टिकोण लक्षित, प्रभावी और जलवायु के प्रति जागरूक है।”
सरकार जल्द ही इन निष्कर्षों को सुप्रीम कोर्ट में एमसी मेहता बनाम भारत सरकार मामले में दाखिल करेगी, जहां FGD के कार्यान्वयन की समयसीमा पर न्यायिक निगरानी चल रही है।
उद्योग के विशेषज्ञों का कहना है कि इस छूट से उत्पादन लागत कम होगी, जिससे राज्य वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) टैरिफ पर नियंत्रण रख पाएंगी और सरकारों पर सब्सिडी का बोझ घटेगा। उच्च मांग और लागत-संवेदनशील बाजार में इसका असर उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली के रूप में मिल सकता है।
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