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उत्तर भारत में गुजरात के नारियल का दबदबा: मूंगफली और गेहूं छोड़कर किसान अपना रहे हैं ‘कल्पवृक्ष’

| Updated: December 13, 2025 13:41

दक्षिण भारत को पछाड़कर कैसे गुजरात बना 'कोकोनट कैपिटल'? जानिए मूंगफली छोड़कर किसानों ने क्यों अपनाया यह 'हरा सोना'

जूनागढ़/सोमनाथ: भारत में नारियल की राजधानी अब बदल रही है। अगर आपको लगता है कि नारियल का मतलब सिर्फ केरल, तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल है, तो आपको गुजरात के सौराष्ट्र की ओर देखने की जरूरत है। यहाँ सोमनाथ, जूनागढ़, वलसाड और भावनगर से गुजरने वाला नेशनल हाईवे-51 अब ‘कोकोनट हाईवे’ में तब्दील हो चुका है। खेतों में लहराते ताड़ के पेड़ और सड़क पर खड़े ट्रकों का काफिला गवाही दे रहा है कि गुजरात का हरा नारियल अब दिल्ली, जयपुर, चंडीगढ़, हरियाणा और पंजाब की प्यास बुझा रहा है।

बीते कुछ वर्षों में यहाँ के किसानों ने गेहूं और मूंगफली की पारंपरिक खेती को छोड़कर नारियल को अपनाया है, और इस फैसले ने उनकी किस्मत बदल दी है। सोमनाथ के प्रगतिशील किसान और इस फसल के शुरुआती प्रमोटरों में से एक, नारणभाई सोलंकी कहते हैं, “नारियल हमारे लिए कल्पवृक्ष (दिववीय वृक्ष) है। यह अब हमारी जीवनरेखा बन चुका है।”

आंकड़े बयां करते हैं सफलता की कहानी

गुजरात में अब 2 सितंबर को ‘विश्व नारियल दिवस’ एक त्यौहार की तरह मनाया जाता है। राज्य के कृषि मंत्री राघवजी पटेल द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में नारियल की खेती का दायरा 2014-15 के 22,451 हेक्टेयर से लगभग 26 प्रतिशत बढ़कर 2024-25 में 28,197 हेक्टेयर हो गया है।

वर्तमान में, गुजरात हर साल 260.9 मिलियन (लगभग 26 करोड़) नारियल का उत्पादन कर रहा है। इसमें से लगभग 20 प्रतिशत नारियल तब तोड़े जाते हैं जब वे हरे और कच्चे होते हैं। हालांकि कुल उत्पादन में गुजरात देश में सातवें स्थान पर है, लेकिन उत्तर भारत के बाजार में इसका एकतरफा राज है। उत्तर भारत में बिकने वाले लगभग 40 प्रतिशत नारियल की आपूर्ति अब गुजरात से ही हो रही है।

नारियल विकास बोर्ड (CDB) के पूर्व बाजार विकास अधिकारी एस. जयकुमार कहते हैं, “आने वाले वर्षों में गुजरात दक्षिणी राज्यों के लिए एक बड़ा प्रतियोगी बनकर उभरेगा। देश में टेंडर कोकोनट (कच्चे नारियल) की कमी थी और गुजरात ने इस मौके को सही समय पर लपक लिया।”

कोविड ने बदली लोगों की पसंद और किसानों की किस्मत

जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के हॉर्टिकल्चर कॉलेज के प्रिंसिपल और डीन, डॉ. डीके वारु का कहना है कि तटीय गुजरात में उत्पादन तो एक दशक से बढ़ रहा था, लेकिन कोविड महामारी ने इसे जबरदस्त बूस्ट दिया। डॉ. वारु बताते हैं, “कोविड के दौरान डॉक्टरों ने मरीजों को पेप्सी और कोक की जगह नारियल पानी पीने की सलाह दी। यह आदत लोगों में बस गई।”

जहां दक्षिण भारत का अधिकतर नारियल तेल और प्रोसेसिंग में जाता है, वहीं गुजरात का नारियल अपने मीठे पानी और मलाईदार गूदे के लिए मशहूर है। डॉ. वारु के अनुसार, “सौराष्ट्र के कच्चे नारियल के पानी की गुणवत्ता सबसे बेहतरीन है, दक्षिण से भी बेहतर।”

मुनाफे की बात करें तो नारियल के पेड़ों ने किसानों की जेब भर दी है। किसानों के मुताबिक, नारियल से प्रति बीघा आय लगभग 50,000 से 70,000 रुपये होती है, जबकि मूंगफली से यह मुश्किल से 30,000 रुपये के पार जाती थी। डॉ. वारु यह भी स्पष्ट करते हैं कि सौराष्ट्र में यह बदलाव किसी सरकारी योजना से नहीं, बल्कि किसानों की अपनी मेहनत से शुरू हुआ था।

किसानों की जिंदगी में आया बदलाव

जूनागढ़ के पाटन वेरावल तालुका के चंदुवाव गांव में भीमसी भाई और दाना भाई अब शाम को सुकून से चाय की चुस्की लेते हैं। एक समय था जब वे मूंगफली, उड़द और गेहूं उगाते थे, लेकिन नारियल ने उन्हें जो रिटर्न दिया, वह किसी और फसल ने नहीं दिया।

छह महीने पहले, दाना भाई को एहसास हुआ कि उनके छह बीघा जमीन के एक छोटे से हिस्से में लगे नारियल बाकी फसलों की तुलना में अधिक कमाई दे रहे हैं। उन्होंने पुरानी फसलें हटा दीं और नारियल के पौधे लगा दिए। दाना भाई कहते हैं, “नारियल ने न सिर्फ कमाई बढ़ाई, बल्कि हमें समय भी दिया। अब खेत में दिन भर मजदूरी करने की जरूरत नहीं है। मेरे पास अब दो मंजिला घर है और एक किराने की दुकान भी है।”

हॉर्टिकल्चर अधिकारियों के अनुसार, इस तटीय क्षेत्र में 40-50 प्रतिशत मूंगफली और गेहूं की जगह अब नारियल ने ले ली है। भीमसी भाई बताते हैं कि इस फसल में मेहनत कम है—हफ्ते या पंद्रह दिन में एक बार पानी और थोड़ी खाद, बस। औसत सालाना मुनाफा 6 लाख रुपये तक पहुंच जाता है।

लॉजिस्टिक का खेल: दक्षिण पर गुजरात की बढ़त

शाम के 5 बजते ही जूनागढ़ के गडू गांव का चौराहा एक लोडिंग यार्ड में बदल जाता है। यहाँ ट्रकों की लंबी कतारें लगती हैं—कोई जयपुर जा रहा है, कोई दिल्ली तो कोई चंडीगढ़। एक ट्रक में 25 टन माल लोड करने में मजदूरों की चेन को सिर्फ 20 मिनट लगते हैं।

सिद्धि सप्लायर्स के मालिक राजू भाई, जो बाजार के बड़े सप्लायर्स में से एक हैं, बताते हैं, “अभी ऑफ सीजन है तो 7-8 ट्रक ही जा रहे हैं, लेकिन गर्मियों में मैंने एक दिन में 60 से ज्यादा ट्रक लोड करवाए हैं।” राजू भाई ने पिछले साल 10 लाख रुपये से ज्यादा का मुनाफा कमाया।

थोक बाजार में सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले नारियल का भाव अभी 25 रुपये है, जो गर्मियों में 60 रुपये तक चला जाता है। दिल्ली-एनसीआर में खुदरा में यही नारियल 80-100 रुपये का बिकता है।

दिल्ली के व्यापारी आशीष कपूर, जो 35 वर्षों से आजादपुर मंडी में हैं, कहते हैं, “पहले बंगाल के नारियल का दबदबा था। लेकिन वहाँ कीड़ा लगने की समस्या आई तो व्यापारी गुजरात की तरफ मुड़ गए। कर्नाटक का नारियल भी अच्छा है, लेकिन गुजरात का माल सस्ता पड़ता है क्योंकि ट्रांसपोर्ट का खर्च कम है।”

चुनौतियां और भविष्य की राह

हालांकि, सब कुछ इतना आसान भी नहीं है। जलवायु परिवर्तन का असर यहाँ भी दिख रहा है। डॉ. वारु बताते हैं कि गर्मी बढ़ने से ‘लोटन’ किस्म के नारियल का उत्पादन प्रति पेड़ 150 से घटकर 80-100 रह गया है। साथ ही, दक्षिण से लाए गए पौधों के साथ ‘सफेद मक्खी’ (Whiteflies) का प्रकोप भी यहाँ आ गया है, जिससे किसानों को कीटनाशकों का उपयोग करना पड़ रहा है।

हाइब्रिड पौधों की मांग इतनी ज्यादा है कि सरकारी नर्सरी मांग पूरी नहीं कर पा रही हैं। नारणभाई बताते हैं, “अभी 300 से ज्यादा किसान कतार में हैं और पौध के लिए वेटिंग टाइम 1.5 साल से ज्यादा है।”

बावजूद इसके, किसानों के हौसले बुलंद हैं। सुपासी गांव के दानाभाई सोलंकी चाहते हैं कि अब गुजरात सिर्फ कच्चे नारियल तक सीमित न रहे। वे कहते हैं, “हम चाहते हैं कि अडानी और अंबानी जैसे बड़े समूह गुजरात की नारियल इंडस्ट्री में निवेश करें, ताकि एक्सपोर्ट के दरवाजे खुल सकें।”

फिलहाल, गुजरात ने उत्तर भारत के बाजार में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है और यह ‘कोकोनट हाईवे’ दिन-रात तरक्की की नई इबारत लिख रहा है।

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