अहमदाबाद: गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालतों ने महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को लेकर एक ऐतिहासिक और नजीर पेश करने वाला फैसला सुनाया है। अदालतों ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर कोई युवती अपनी जाति से बाहर शादी करती है, तो इसे आधार बनाकर उसे पैतृक या माता-पिता द्वारा अर्जित संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता। यह फैसला हिन्दू उत्तराधिकार कानून के तहत महिलाओं के अधिकारों को और मजबूत करता है।
पहला मामला: पटेल युवती को परिवार ने किया था बेदखल
एक महत्वपूर्ण मामले में, पटेल समुदाय की एक महिला ने ओबीसी (OBC) समुदाय के युवक से विवाह किया था। इस अंतरजातीय विवाह से नाराज होकर उसके परिवार ने उससे सारे रिश्ते तोड़ लिए थे। 1986 में महिला के पिता का निधन हो गया, जिसके बाद उसके सात भाई-बहनों ने पैतृक संपत्ति के रिकॉर्ड में अपने नाम दर्ज करवा लिए, लेकिन उस महिला को इससे पूरी तरह बाहर रखा।
साल 2018 में महिला को पता चला कि उसे जायदाद से बेदखल कर दिया गया है। इसके बाद, उसने 2019 में अपने 1/8वें हिस्से की मांग करते हुए दीवानी मुकदमा (Civil Suit) दायर किया। शुरुआत में दीवानी अदालत ने 12 साल की समय सीमा (Limitation Period) का हवाला देते हुए उसकी याचिका खारिज कर दी थी।
हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी: अधिकार आसानी से खत्म नहीं होता
महिला ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। वहां उसके भाई-बहनों ने दलील दी कि दीवानी अदालत का फैसला सही है। हालांकि, गुजरात हाईकोर्ट ने उनकी दलीलों को खारिज कर दिया और निचली अदालत के फैसले को पलट दिया।
हाईकोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 का हवाला देते हुए कहा, “भले ही कानून में संशोधन वर्ष 2005 में हुआ हो, लेकिन सहदायिक (Coparcener) के रूप में बेटी का अधिकार 1956 से ही मान्य है। इसलिए, बेटी का पिता की संपत्ति में अधिकार तब तक खत्म नहीं होता, जब तक कि वह खुद अपना हक न छोड़ दे या किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत यह अधिकार समाप्त न हो जाए।” अदालत ने मामले को विभाजन और अन्य मुद्दों के निपटारे के लिए वापस सिविल कोर्ट भेज दिया।
क्या कहता है 2005 का कानून?
गौरतलब है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 9 सितंबर 2005 को हुए संशोधन ने बेटियों को बेटों के बराबर ही सहदायिक (Coparcener) का दर्जा दिया है। इसका उद्देश्य 1956 के अधिनियम में मौजूद लैंगिक भेदभाव को खत्म करना था, ताकि बेटियों को भी पारिवारिक संपत्ति में बेटों के समान अधिकार और जिम्मेदारियां मिल सकें।
दूसरा मामला: भागकर शादी करने वाली बेटी का संघर्ष
एक अन्य मामले में, अहमदाबाद की एक महिला ने घर से भागकर दूसरी जाति के युवक से शादी की थी। इसके बाद उसे पिता द्वारा खरीदी गई संपत्ति से वंचित करने की कोशिश की गई। महिला ने 2013 में एक दीवानी मुकदमा दायर किया, जिसमें उसने अपनी मां और भाई को घाटलोडिया इलाके की उन संपत्तियों को बेचने से रोकने की मांग की, जिसे उसके स्वर्गीय पिता ने खरीदा था।
परिवार ने दलील दी कि भागकर शादी करने के बाद महिला ने परिवार से नाता तोड़ लिया था। उन्होंने यह भी दावा किया कि 2008 में वह वापस लौटी थी, तो मां ने उसे रहने के लिए वेजलपुर में एक फ्लैट दिया था, जिसे उसने हड़प लिया। इस संबंध में एक एफआईआर (FIR) भी दर्ज कराई गई थी।
भाई की दलीलें खारिज
मां के निधन के बाद, भाई ने एक जवाबी दावा (Counterclaim) दायर कर वेजलपुर वाले मकान पर कब्जे की मांग की। उसका कहना था कि उसने 2011 में मां से वह घर खरीदा था।
मई 2022 में, सिविल कोर्ट ने भाई को संपत्तियां बेचने से रोक दिया और माना कि ये अविभाजित सहदायिक संपत्तियां हैं, जिन पर बहन का भी बराबर का हक और हित है। कोर्ट ने भाई के उस दावे को भी खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि बहन ने वेजलपुर वाला घर हड़प लिया है।
इसके बाद भाई ने जिला अदालत (District Court) का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उसे वहां भी निराशा हाथ लगी। पिछले सप्ताह अपने आदेश में जिला अदालत ने कहा, “अपीलकर्ता यह साबित करने में विफल रहा है कि ट्रायल कोर्ट का आदेश किसी भी तरह से गलत, अवैध या कानून के सिद्धांतों के खिलाफ है।”
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