अहमदाबाद: गुजरात हाईकोर्ट ने एक बेहद महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) के तहत संपन्न हुए विवाह को विदेशी अदालतें सिर्फ इसलिए खत्म नहीं कर सकतीं क्योंकि पति-पत्नी ने बाद में किसी दूसरे देश की नागरिकता हासिल कर ली है। यह फैसला उन हजारों भारतीय जोड़ों को प्रभावित करेगा जो शादी के बाद विदेश में बस जाते हैं।
जस्टिस ए.वाई. कोग्जे और जस्टिस एन.एस. संजय गौड़ा की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, “एक हिंदू विवाह के लिए, पति-पत्नी की नागरिकता का कोई महत्व नहीं है। महत्वपूर्ण केवल यह है कि दोनों पक्ष हिंदू धर्म को मानते हैं और हिंदू विवाह अधिनियम के तहत अपने वैवाहिक रिश्ते को निभाने के लिए सहमत हैं।”
अदालत ने साफ किया कि भारत में धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ हिंदू विवाह हमेशा HMA के प्रावधानों के अधीन ही रहेगा, भले ही पति-पत्नी दुनिया के किसी भी देश में नया निवास स्थान बना लें या वहां की नागरिकता हासिल कर लें।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला अहमदाबाद के एक जोड़े से जुड़ा है, जिनकी शादी 2008 में हुई थी। शादी के कुछ समय बाद वे ऑस्ट्रेलिया चले गए और वहां के नागरिक बन गए। हालांकि, जल्द ही उनके रिश्ते में खटास आ गई।
पति ने ऑस्ट्रेलिया की फेडरल सर्किट कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दी, और 2016 में अदालत ने उनके विवाह को भंग करने का आदेश दे दिया।
इसके बाद, पत्नी भारत लौट आई और अहमदाबाद की एक अदालत में कानूनी कार्यवाही शुरू की। इसमें गुजारा-भत्ता के लिए याचिका, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए मुकदमा और ऑस्ट्रेलियाई तलाक के आदेश को अमान्य घोषित करने की मांग शामिल थी।
हाईकोर्ट ने पलटा निचली अदालत का फैसला
शुरुआत में, फैमिली कोर्ट ने महिला की याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चूंकि जोड़ा ऑस्ट्रेलियाई नागरिक है, इसलिए वहां की अदालत के पास अधिकार क्षेत्र था। महिला ने इस फैसले को गुजरात हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने अपने 48 पन्नों के विस्तृत फैसले में फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों को पलट दिया।
अदालत ने कहा कि अगर विदेशी अदालतों को इस तरह से एकतरफा विवाह भंग करने की इजाजत दी गई, तो हिंदू विवाह कानून की नींव ही कमजोर हो जाएगी।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट के 1991 के ऐतिहासिक फैसले (वाई. नरसिम्हा राव बनाम वाई. वेंकट लक्ष्मी) पर बहुत भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि विदेशी तलाक के आदेश भारत में तब तक मान्य नहीं होंगे, जब तक वे हिंदू विवाह अधिनियम के तहत उपलब्ध आधारों के अनुरूप न हों।
हिंदू विवाह एक संस्कार है, सिर्फ अनुबंध नहीं
खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह केवल एक अनुबंध नहीं, बल्कि एक संस्कार है, जो धर्म और संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ है। कानून अब तलाक की अनुमति तो देता है, लेकिन केवल कुछ सीमित वैधानिक आधारों पर।
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि ‘विवाह का अपूरणीय रूप से टूटना’ (Irretrievable breakdown of marriage), जिसे अक्सर विदेशों में तलाक का आधार माना जाता है, उसे भारतीय कानून में अभी भी मान्यता नहीं मिली है। अदालत ने यह भी चिंता जताई कि ऐसे मामलों में विदेशी आदेशों को स्वीकार करने से भ्रम पैदा होगा, जहां एक व्यक्ति विदेश में तलाकशुदा माना जाएगा लेकिन भारत में विवाहित रहेगा।
अंत में, हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने फैमिली कोर्ट को निर्देश दिया है कि वह पत्नी द्वारा दायर की गई याचिकाओं पर कानून के अनुसार और मामले के गुण-दोष के आधार पर नए सिरे से सुनवाई करे।
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