ममता बनर्जी की उड़ान से पहले ही राष्ट्रीय स्तर पर उड़ान ठप हो गई है।
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर प्रभावशाली चुनावी जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता ने 2024 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी के लिए खुद को एकमात्र चुनौती के रूप में देखा। वह त्रिपुरा और गोवा जैसे दूर-दराज के राज्यों में नए साथी खोजने और लोगों को प्रभावित करने के लिए निकली थीं – जहां हाल तक उनकी पार्टी की कोई उपस्थिति नहीं थी। इस प्रयास में उन्हें त्रिपुरा निकाय चुनावों में एक भी सीट नहीं मिली, जबकि वहां भाजपा ने 222 सीटों में से पांच को छोड़कर सभी पर जीत हासिल की।
गोवा में आगामी चुनावों में उनकी पार्टी कांग्रेस और अन्य पार्टियों के नेताओं को उखाड़ फेंकने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल रही है। हालांकि स्थानीय लोग अपने बीच में एक बंगाली नेता के आने से चकित हैं, जिसकी पहले कोई सांकेतिक उपस्थिति भी नहीं थी। ऐसा लगता है कि टीएमसी के पास काफी धन है और उसने अपने पोस्टरों से राज्य को पाट दिया है। फिर भी अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी यहां अपना खाता नहीं खोल पाएगी।
ममता बनर्जी शिवसेना के अलावा शरद पवार से मिलने के लिए मुंबई गई, जो अब शायद भारत के सबसे वरिष्ठ राजनेता हैं। शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के अस्पताल में भर्ती होने पर वह उनके बेटे आदित्य से मिलीं (उन्होंने एक बार कहा था कि वह राहुल गांधी से कभी नहीं मिलेंगी)। इसके तुरंत बाद पार्टी ने एक बयान जारी किया कि कांग्रेस को छोड़ कर कोई भी बहुदलीय गठबंधन हो सकता है। इसके बाद ठाकरे फौरन दिल्ली गए और सोनिया गांधी से मिले और अपने गठबंधन पर औपचारिक रूप से मुहर लगा दिया।
पवार ने महत्वाकांक्षी शोर मचाया कि उन्होंने पूरी दक्षता के साथ खेती की है, जिसकी व्याख्या कई तरह से की जा सकती है। लेकिन बनर्जी के प्रति कोई प्रतिबद्धता सामने नहीं आई।
स्पष्ट रूप से कोई भी बनर्जी की ‘कांग्रेस के बिना कोई भी’ की योजना को स्वीकार नहीं कर रहा है। न केवल इसलिए कि किसी भी मोर्चे को अंतिम रूप देना जल्दबाजी होगी, बल्कि इसलिए भी कि कांग्रेस की राष्ट्रीय उपस्थिति है, जो ऐसा करने वाली एकमात्र विपक्षी पार्टी है। अधिकांश क्षेत्रीय दल अन्य अपने गृह राज्यों तक ही सीमित रहते हैं और कहीं और सेंध नहीं लगा सकते। ममता का अतिरेक समय से बहुत पहले है और वह भूल गई हैं कि भारत में एकतरफा महत्वाकांक्षा कभी भी अच्छा विचार नहीं है। नरेंद्र मोदी इस सबसे अप्रभावित रह सकते हैं और सबके विरोध में चलते हुए बढ़ सकते हैं, यह जानते हुए कि उन्हें शक्तिशाली हस्तियों का समर्थन प्राप्त है। लेकिन यही बात ममता और उनकी पार्टी के लिए नहीं कही जा सकती। फिलहाल वह एक क्षेत्रीय नेता ही हैं, अपने क्षेत्र में एक रानी जहां उनका राज चलता है। ठीक उसी तरह, जैसे तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन का। वह कांग्रेस को नापसंद कर सकती हैं, लेकिन अन्य लोग उनकी तरह ही नहीं सोच रहे।
बनर्जी कांग्रेस को खत्म कर उसकी जगह पर कब्जा करना चाहती हैं, लेकिन यह कल्पना करते हुए वह 135 साल पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के इतिहास और विरासत को ध्यान में नहीं रखती हैं। अन्य, चाहे वे कितने भी अनिच्छुक हों, उन्होंने इसे स्वीकार किया है और इसे समायोजित करने के लिए तैयार हैं, भले ही इसका मतलब कुछ सीटों का त्याग करना हो, जैसे कि बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक सीटें दी थीं।
यह अहसास शिवसेना के यूपीए में शामिल होने के फैसले में सबसे ज्यादा दिखाई देता है। चाहे जो भी रहा हो, लेकिन 1966 में अस्तित्व में आने के साथ ही दोनों मुंबई में शत्रु रही हैं। कांग्रेस ने जहां धर्मनिरपेक्षता की बात की; वहीं शिवसेना खुले तौर पर राष्ट्रवादी थी, ‘बाहरी लोगों’ के पीछे पड़ी हुई थी। 1980 के दशक में शिवसेना ने मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काना शुरू कर दिया, जो 1992-93 में चरम पर पहुंच गई, जब पार्टी ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया। बाल ठाकरे ने भड़काऊ भाषण दिए। उनके अखबार सामना ने उसी सोच के संपादकीय लिखे। नतीजतन लगभग एक नरसंहार में सैकड़ों मुसलमान मारे गए। शिवसेना नेताओं का नाम लिया गया, लेकिन वे जेल से बाहर ही रहे।
भाजपा के साथ साझेदारी करना अगला तार्किक कदम था और दोनों 25 साल तक सत्ता में पार्टनर बने रहे। वैसे शिवसेना शुरू से ही मोदी से असहज थी, फिर भी वह भाजपा के साथ राज्य में सरकार में शामिल हो गई, लेकिन बाद में लगातार हमले करती रही। शिवसेना 2019 के बाद गठबंधन से बाहर आ गई और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ मोर्चा बना लिया।
इस गठबंधन ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में काम किया, जो एक शांत व्यक्ति के रूप में सामने आए हैं, यहां तक कि शिवसेना-संशयवादियों के बीच भी प्रशंसक बन गए हैं।
इस इतिहास के साथ उसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के साथ जुड़ना क्रांतिकारी कदम से कम नहीं है। राजनीति में अजीब चीजें होती हैं, और व्यावहारिकता यहां मूलमंत्र है। चतुर राजनीतिज्ञ की तरह ममता बनर्जी को देर-सबेर यह तय करना ही होगा कि उनका भविष्य किस दिशा में है।











