पहुलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को जिस सटीकता और उद्देश्य के साथ अंजाम दिया गया, उसने देशभर में हमारी सेनाओं की तत्परता, त्वरित प्रतिक्रिया और सीमा पार कार्रवाई की क्षमता को प्रदर्शित किया। यह छोटी उपलब्धियां नहीं हैं। ये दर्शाती हैं कि भारत अब अपनी जनता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए निर्णायक कार्रवाई करने में हिचकता नहीं।
लेकिन इस एकजुटता और विजय की भावनाओं के बीच कुछ सवाल ऐसे हैं जो अब भी अनुत्तरित हैं — न तो संसद में उनका उत्तर मिला और न ही आधिकारिक बयानों में उनका उल्लेख हुआ। ये ऐसे हैं कि इन सवालों को सिर्फ पूछना नहीं, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय स्मृति में बनाए रखना भी जरूरी है। क्योंकि किसी राष्ट्र की ताकत केवल उसके प्रतिशोध की क्षमता से नहीं, बल्कि उन गलतियों से सीखने की तत्परता से तय होती है, जो प्रतिशोध की आवश्यकता पैदा करती हैं।
राज्य का पहला कर्तव्य है— रोकथाम। इस कड़ी निगरानी वाले और रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण कश्मीर क्षेत्र में आतंकियों द्वारा घुसपैठ कर हमला करना, सिर्फ सुरक्षा का उल्लंघन नहीं बल्कि संस्थागत समन्वय की असफलता भी है।
वास्तविक चूक कहां हुई?
- क्या यह खुफिया जानकारी जुटाने, उसका विश्लेषण करने या उसे साझा करने में विफलता थी?
- क्या एजेंसियों के बीच तय प्रोटोकॉल का पालन हुआ या उन्हें नजरअंदाज किया गया?
- स्थानीय समर्थन तंत्र की क्या समीक्षा की गई जिन्होंने आतंकियों की आवाजाही को मुमकिन बनाया?
ये सवाल किनारे के नहीं हैं। ये प्रतिरोध क्षमता की प्रभावशीलता को मापने के केंद्र में हैं — कि क्या हमारी रणनीति वास्तव में प्रतिरोधात्मक है या केवल प्रतिक्रियात्मक?
हाल की संसद बहस यह दर्शाती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा केवल प्रेस ब्रीफिंग तक सीमित नहीं रह सकता। हालांकि बहस ने कुछ महत्वपूर्ण आवाजों को सामने लाया, लेकिन बहस का स्वर अकसर नीति से ज़्यादा राजनीतिक प्रदर्शन जैसा प्रतीत हुआ।
प्रधानमंत्री ने सरकार की प्रतिक्रिया का बचाव किया और वैश्विक समर्थन का उल्लेख भी किया, लेकिन हमले से पहले की विफलताओं पर चर्चा करने में झिझक स्पष्ट थी। संसद का उद्देश्य यही है — रियल-टाइम निर्णयों पर सवाल नहीं, बल्कि उन निर्णयों के पीछे की संस्थागत व्यवस्था पर स्पष्टता की मांग करना।
लोकतंत्र में कठिन सवाल पूछना विद्रोह नहीं, कर्तव्य है। इन सवालों के जवाब देने में ईमानदारी की कमी, भले ही क्षणिक तालियां दिला दे, लेकिन इससे हमारी संस्थाएं अनपेक्षित और अपरीक्षित रह जाती हैं।
एक और असहज सवाल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस दावे से जुड़ा है जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने संघर्ष के दौरान संघर्षविराम करवाने में भूमिका निभाई। चाहे ये दावे तथ्यात्मक रूप से सही हों या नहीं, लेकिन भारत की ओर से किसी स्पष्ट खंडन की अनुपस्थिति ने भ्रम की गुंजाइश बढ़ा दी है।
भारत ने हमेशा अपनी रणनीतिक स्वायत्तता पर गर्व किया है। हमारी सुरक्षा नीति की विश्वसनीयता इसी पर आधारित है कि हम किसी बाहरी दबाव के बिना निर्णय लेते हैं। ऐसी स्थिति में चुप्पी को रणनीतिक संयम नहीं, बल्कि अनिश्चितता या मौन स्वीकृति के रूप में देखा जा सकता है।
भारत की डिटरेंस (प्रतिरोधक) नीति व्यवहार में भले ही विकसित हुई हो, लेकिन सैद्धांतिक रूप से अब भी अस्पष्ट है। हम बार-बार उरी, बालाकोट और अब पहलगाम जैसी घटनाओं के बाद सशक्त प्रतिक्रिया देते रहे हैं, लेकिन कोई स्पष्ट और सार्वजनिक सुरक्षा सिद्धांत (डॉक्ट्रिन) न होना, हमारी रणनीति को भ्रमित बनाता है।
कुछ ज़रूरी सवाल जो जवाब चाहते हैं:
- क्या हमारे पास कोई ‘थ्रेशहोल्ड डॉक्ट्रिन’ है जो प्रतिक्रिया की सीमा तय करता है?
- क्या हम तनाव बढ़ने की संभावनाओं को संभालने के लिए तैयार हैं?
- क्या हमारे पास ऐसी रणनीति है जो सैन्य और साइबर हमलों के संयुक्त खतरे से निपट सके?
इन सवालों पर केवल राजनीतिक बहस नहीं, बल्कि संस्थागत नीतिगत स्पष्टता की जरूरत है।
हमारी राजनीतिक संस्कृति में राष्ट्रीय सुरक्षा को नेताओं की छवि, विपक्ष की आलोचना और मीडिया की सुर्खियों से जोड़कर देखा जाने लगा है। लेकिन सच्ची राष्ट्रीय सुरक्षा व्यक्तियों में नहीं, संस्थाओं में होती है — ऐसी संस्थाएं जो किसी भी सत्ता में हों, बिना दबाव के काम करें, सवाल पूछ सकें, सुधार कर सकें।
इसी संदर्भ में यह चिंता का विषय है कि इतनी बड़ी सुरक्षा चूक और सैन्य संसाधनों की तैनाती के बाद भी न तो किसी संस्थागत जवाबदेही की घोषणा हुई, न ही किसी पदाधिकारी का इस्तीफा आया और न ही कोई सार्वजनिक ऑडिट सामने आया। ऐसी पारदर्शिता कमजोरी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की ताकत है।
ऑपरेशन सिंदूर भारतीय सेना की तत्परता का उदाहरण हो सकता है, लेकिन यह भी याद दिलाता है कि राज्य की पहली जिम्मेदारी बदला नहीं, सतर्कता है। जब संसद बैठे, जब जनता सुने, और जब नेता बोलें, तो केवल एकता का प्रदर्शन नहीं, विश्वसनीयता की रक्षा भी होनी चाहिए।
दीर्घकाल में भारत की सबसे बड़ी ताकत इसकी तत्पर प्रतिक्रिया में नहीं, बल्कि पूर्वानुमान, तैयारी और आत्मसुधार की क्षमता में होगी।
और सबसे ज़रूरी बात — हमें कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी चूक की कीमत कौन चुका रहा है। 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट से लेकर 26/11 और कश्मीर, दिल्ली सहित कई अन्य स्थानों पर हुए हमले — यह मासूमों की अंतहीन कुर्बानियों की श्रृंखला हैं। हर ऐसा हमला जो हम नहीं रोक पाए, वह सिर्फ दुख नहीं, बल्कि एक नैतिक चेतावनी है।
पहुलगाम में खोई गई जानें कोई अलग घटनाएं नहीं हैं। वे उस निरंतर पीड़ा का हिस्सा हैं जो हमारी सुरक्षा की चूकों का परिणाम है। हमें इस सच्चाई को केवल शोक में नहीं, बल्कि बेहतर सतर्कता, सशक्त प्रणाली और अडिग सुरक्षा दृष्टिकोण के लिए प्रेरणा बनाना होगा।
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