लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को निरस्त करने और उसकी जगह ‘विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) बिल’ लाने पर केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोला है। राहुल गांधी ने इसे “गरीब विरोधी” और “गांधीवादी विचारधारा पर सीधा प्रहार” करार दिया।
उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने एक ही दिन में 20 साल पुरानी उस योजना को ध्वस्त कर दिया जो ग्रामीण भारत की रीढ़ थी। राहुल ने चेतावनी दी कि कांग्रेस इस “जनविरोधी” विधेयक का “सड़क से लेकर संसद तक” विरोध करेगी।
उनका कहना है कि यह नया कानून अधिकारों पर आधारित गारंटी को खत्म कर इसे दिल्ली से नियंत्रित एक राशन वाली योजना में बदल देगा, जो राज्यों और गांवों के हितों के खिलाफ है।
इस राजनीतिक घमासान के बीच, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और नौ अन्य प्रसिद्ध शिक्षाविदों ने भारत सरकार को एक खुला पत्र लिखकर आगाह किया है। उन्होंने कहा कि मनरेगा को निरस्त करना एक “ऐतिहासिक भूल” होगी।
यह पत्र उस दिन सामने आया जब लोकसभा ने मनरेगा की जगह लेने वाले 2025 के नए विधेयक को पारित किया, जिसे बाद में विपक्ष के भारी विरोध के बीच राज्यसभा ने भी मंजूरी दे दी। विद्वानों ने मनरेगा को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण नीतिगत ढांचा बताया जो रोजगार के कानूनी अधिकार को सुनिश्चित करता है।
उनके अनुसार, जिस कानून को बदला जा रहा है, वह आर्थिक गरिमा को मौलिक अधिकार मानता है और अनुभवजन्य साक्ष्य इसके सकारात्मक प्रभाव की पुष्टि करते हैं।
सन 2005 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा शुरू की गई मनरेगा योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा बढ़ाना था, जिसके तहत हर इच्छुक ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिनों के अकुशल श्रम की गारंटी दी गई थी।
नए विधेयक में गारंटीकृत कार्य दिवसों को 100 से बढ़ाकर 125 करने का प्रस्ताव है, लेकिन इसमें राज्यों पर वित्तीय बोझ को काफी बढ़ा दिया गया है। जहां मनरेगा में मजदूरी का पूरा खर्च केंद्र सरकार उठाती थी, वहीं नए कानून के तहत राज्यों को कुल लागत का 40% हिस्सा वहन करना होगा।
पूर्वोत्तर और हिमालयी राज्यों के लिए यह हिस्सेदारी 10% तय की गई है, जबकि बिना विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेशों का पूरा खर्च केंद्र उठाएगा।
शिक्षाविदों ने चिंता जताई है कि फंडिंग का यह नया ढांचा राज्यों के लिए एक विनाशकारी स्थिति पैदा कर देगा। उनका कहना है कि रोजगार देने की कानूनी जिम्मेदारी तो राज्यों पर होगी, लेकिन केंद्र अपना वित्तीय हाथ खींच रहा है।
पहले जहां राज्य केवल सामग्री लागत का 25% देते थे, अब उन पर कुल लागत का 40% से 100% तक का बोझ आ जाएगा। इससे गरीब राज्य परियोजनाओं को मंजूरी देने में कटौती करेंगे, जिससे काम की मांग सीधे तौर पर प्रभावित होगी।
पत्र में पश्चिम बंगाल का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि पिछले तीन वर्षों में राज्य को मनरेगा के तहत फंड न देना राजनीतिक दुरुपयोग का एक उदाहरण है, और नया ढांचा इस जोखिम को संस्थागत बना देगा।
इस खुले पत्र पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक ओलिवियर डी शटर, न्यूयॉर्क के बार्ड कॉलेज की प्रोफेसर पावलीना चेर्नेवा और वर्ल्ड इनिक्वालिटी लैब के सह-निदेशक थॉमस पिकेटी जैसे दिग्गजों ने भी हस्ताक्षर किए हैं। उनका कहना है कि मनरेगा न केवल मजदूरी प्रदान करता है, बल्कि कुओं, सड़कों और तालाबों जैसे महत्वपूर्ण ग्रामीण बुनियादी ढांचे का निर्माण भी करता है, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति मिलती है।
नए बिल में यह प्रावधान भी है कि यदि आवेदन के 15 दिनों के भीतर काम नहीं दिया जाता है, तो बेरोजगारी भत्ता देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी। विद्वानों ने चेतावनी दी है कि राज्यों के लिए परियोजनाओं को आर्थिक रूप से असंभव बनाकर, सरकार इन बहुआयामी लाभों को खत्म कर देगी।
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