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साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा रद्द: स्वायत्तता पर सरकारी ‘हमला’ या नियंत्रण की नई कोशिश?

| Updated: December 23, 2025 18:04

इतिहास में पहली बार ऐन वक्त पर क्यों रुकी साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा? क्या संस्कृति मंत्रालय के नए आदेश से खतरे में है संस्थानों की स्वायत्तता? पढ़िए यह विशेष रिपोर्ट।

नई दिल्ली: साहित्य अकादमी के इतिहास में पिछले सप्ताह जो हुआ, वह पहले कभी नहीं देखा गया। प्रतिष्ठित वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा को ऐन वक्त पर रद्द कर दिया गया। जानकारों का मानना है कि इस नाटकीय घटनाक्रम के पीछे मोदी सरकार की वह मंशा छिपी है, जिसके जरिए वह इस स्वायत्त संस्थान के बचे-खुचे स्वतंत्र दायरे को भी पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।

आखिर उस दिन हुआ क्या? (पूरा घटनाक्रम)

साहित्य अकादमी हर साल 24 भाषाओं में अपने प्रतिष्ठित पुरस्कारों की घोषणा करती है। इस साल भी सभी भाषाओं की जूरी ने विचार-विमर्श के बाद विजेताओं के नाम तय कर लिए थे। अकादमी के कार्यकारी बोर्ड ने इन नामों को मंजूरी दे दी थी और गुरुवार, 18 दिसंबर को विजेताओं के नामों की घोषणा के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई गई थी।

अकादमी में प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारियां पूरी थीं। मेहमान और पत्रकार जुट चुके थे, चाय-समोसे का दौर चल रहा था, तभी संस्कृति मंत्रालय का एक आनन-फानन में जारी किया गया सर्कुलर वहां पहुंचा। इस सर्कुलर ने पूरी प्रक्रिया पर ब्रेक लगा दिया।

मंत्रालय का वह ‘विवादास्पद’ सर्कुलर

संस्कृति मंत्रालय द्वारा ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) के प्रमुखों को संबोधित इस पत्र में ‘पुरस्कारों के पुनर्गठन’ (Restructuring of Awards) की बात कही गई थी। सर्कुलर में उस समझौता ज्ञापन (MoU) की याद दिलाई गई, जिस पर संस्थानों ने पहले हस्ताक्षर किए थे। इसमें स्पष्ट लिखा था:

“जब तक पुरस्कारों के पुनर्गठन को मंत्रालय द्वारा विधिवत मंजूरी नहीं मिल जाती, तब तक मंत्रालय की पूर्व स्वीकृति के बिना पुरस्कारों की घोषणा की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की जाएगी।”

इस आदेश के बाद घोषणा रद्द कर दी गई, जिससे अकादमी के अधिकारी और जूरी सदस्य हैरान रह गए।

सचिव की भूमिका और स्वायत्तता पर सवाल

इस पूरे विवाद के केंद्र में पल्लवी प्रशांत होल्कर का नाम भी आ रहा है। वह 2011 बैच की भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा (IA&AS) अधिकारी हैं, जिन्हें के. श्रीनिवासराव की सेवानिवृत्ति के बाद मंत्रालय द्वारा अकादमी का सचिव नियुक्त किया गया था। अकादमी के भीतर चर्चा है कि उनकी नियुक्ति ही संस्थान पर मंत्रालय का नियंत्रण बढ़ाने की दिशा में एक कदम था।

इस कदम पर उठ रहे 5 बड़े सवाल:

  1. देरी से निर्देश: अगर मंत्रालय पुरस्कारों का पुनर्गठन करना चाहता था, तो यह निर्देश जूरी के गठन से बहुत पहले दिया जाना चाहिए था।
  2. नियमों का पूर्व-व्यापी प्रभाव: पुरस्कार प्रक्रिया इस साल जनवरी में शुरू हुई थी, जबकि MoU जुलाई में साइन हुआ था। किसी भी नए नियम को पिछली तारीख से लागू करना तर्कसंगत नहीं है।
  3. ऐन वक्त पर दखल: घोषणा के दिन ही सर्कुलर जारी करने की इतनी जल्दबाजी क्यों थी? क्या यह एक स्वायत्त संस्थान के कामकाज में सीधा हस्तक्षेप नहीं है?
  4. अंधेरे में सचिव: प्रेस कॉन्फ्रेंस सचिव के नाम से तय थी। क्या मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करने वाली सचिव खुद इस फैसले से अनजान थीं?
  5. तथ्यात्मक चूक: सर्कुलर चार संस्थानों को भेजा गया, जिसमें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) भी शामिल है, जबकि NSD कोई वार्षिक पुरस्कार देता ही नहीं है।

गिरती साख और बदलता स्वरूप

पिछले एक दशक में साहित्य अकादमी की साख पर कई बार सवाल उठे हैं। 2015 के ‘पुरस्कार वापसी’ अभियान के दौरान भी अकादमी की काफी आलोचना हुई थी। अब जुलाई में हुए नए MoU ने आशंकाओं को और गहरा कर दिया है। 2017 में भी सरकार ने इन संस्थानों को 25-30% राजस्व खुद जुटाने और ‘आत्मनिर्भर’ बनने को कहा था, जिसका कड़ा विरोध हुआ था।

अधिकारियों का कहना है कि इन संस्थानों का महत्व राजस्व से नहीं, बल्कि जनहित और संस्कृति संरक्षण से आंका जाना चाहिए। अगर साहित्य और कला के राष्ट्रीय पुरस्कारों का फैसला शास्त्री भवन में बैठे ‘बाबू’ (नौकरशाह) करेंगे, तो इनकी गरिमा और लेखकों के बीच इनकी स्वीकार्यता खत्म हो जाएगी।

विरासत बनाम वर्तमान: नेहरू, निराला और महादेवी वर्मा

साहित्य अकादमी की स्थापना 1950 के दशक में एक खास विजन के साथ की गई थी। उस दौर के दस्तावेज बताते हैं कि सरकार और साहित्यकारों के बीच कैसा गरिमामय संबंध था:

निराला की मदद: 1954 में अकादमी के उद्घाटन के अगले दिन ही जवाहरलाल नेहरू ने सचिव कृष्ण कृपलानी को पत्र लिखकर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की आर्थिक तंगी पर चिंता जताई थी और कॉपीराइट कानून में संशोधन कर उनकी मदद करने का रास्ता खोजने को कहा था।

महादेवी वर्मा का प्रसंग: 1958 में जब महादेवी वर्मा ने अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ और ‘ऋग्वेद’ के अनुवाद के लिए वित्तीय सहायता मांगी, तब नेहरू, अबुल कलाम आजाद और डॉ. राधाकृष्णन के बीच बौद्धिक चर्चा हुई। आजाद इसे धार्मिक ग्रंथ मान रहे थे, लेकिन नेहरू ने तर्क दिया कि ये भारतीय क्लासिक्स हैं, सिर्फ धार्मिक पुस्तकें नहीं।

आज जब उसी विरासत को ‘पुनर्गठन’ के नाम पर सरकारी नियंत्रण में लेने की कोशिश हो रही है, तो साहित्य जगत में चिंता लाजिमी है। स्वायत्तता और सत्ता के बीच का यह संघर्ष भारतीय संस्कृति के भविष्य के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा करता है।

उक्त लेख मूल रूप से द वायर वेबसाइट द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है.

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