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सूरत: 7 साल की मासूम को दीक्षा दिलाने की तैयारी पर पिता ने जताई आपत्ति, बच्चों की कस्टडी के लिए खटखटाया फैमिली कोर्ट का दरवाजा

| Updated: December 11, 2025 17:28

'मुझे बच्चों को पढ़ाना है, संन्यास नहीं दिलाना': 7 साल की बेटी की दीक्षा रोकने के लिए पिता ने दी यह दलील

सूरत। गुजरात के सूरत शहर से एक बेहद संवेदनशील पारिवारिक मामला सामने आया है, जहां एक पिता ने अपनी 7 वर्षीय बेटी के जैन भिक्षु बनने (दीक्षा लेने) की प्रक्रिया को रोकने के लिए अदालत की शरण ली है। शेयर बाजार के कारोबारी समीर शाह ने फैमिली कोर्ट में गुहार लगाई है कि उनकी पत्नी से अलग रह रही उनकी नन्हीं बेटी को इतनी कम उम्र में संन्यास के रास्ते पर न भेजा जाए।

समीर शाह ने न केवल दीक्षा रोकने की अपील की है, बल्कि अपने दोनों बच्चों—सात साल की बेटी और पांच साल के बेटे—की कस्टडी (संरक्षण) भी मांगी है। उनका कहना है कि एक पिता के तौर पर वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो सके।

व्हाट्सएप ग्रुप से मिली जानकारी, उड़ गए होश

अडाजण इलाके के रहने वाले समीर शाह ने जज एस.वी. मंसूरी की फैमिली कोर्ट में दायर अपनी अर्जी में बताया कि उन्हें अपनी बेटी की दीक्षा के बारे में एक व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए पता चला। जैन समुदाय द्वारा संचालित इस ग्रुप में फरवरी 2026 में होने वाले दीक्षा समारोह की जानकारी साझा की गई थी, जिसमें प्रतिभागियों की सूची में उनकी बेटी का नाम भी शामिल था।

समीर ने अपनी याचिका में स्पष्ट किया कि उनकी बेटी को दीक्षा दिलाने के इतने बड़े फैसले से पहले उनसे कोई अनुमति नहीं ली गई और न ही उन्हें इस बारे में सूचित किया गया।

पारिवारिक कलह और अलग होना

जानकारी के मुताबिक, समीर शाह की शादी साल 2012 में हुई थी। दंपति के बीच अक्सर होने वाले झगड़ों और मनमुटाव के चलते रिश्तों में खटास आ गई। समीर ने बताया कि वह संयुक्त परिवार में अपने माता-पिता के साथ रहते हैं। शादी के बाद से ही पत्नी की उनकी मां और उनसे अनबन रहती थी। उन्होंने रिश्ता बचाने के लिए धैर्य रखा, लेकिन विवाद नहीं थमे।

समीर के अनुसार, “अप्रैल 2024 में मेरी पत्नी दोनों बच्चों को लेकर मेरा घर छोड़कर चली गई और नानपुरा इलाके में अपने माता-पिता के साथ रहने लगी।”

ससुर और समाज से की थी विनती

समीर ने बताया कि जब उन्हें फरवरी 2026 में होने वाली दीक्षा के बारे में पता चला, तो उन्होंने तुरंत अपने ससुर और समाज के अन्य प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क किया। उन्होंने निवेदन किया कि इतनी छोटी उम्र में उनकी बेटी को साध्वी न बनाया जाए, लेकिन उनका यह अनुरोध ठुकरा दिया गया। इसके बाद मजबूर होकर उन्हें कानून का सहारा लेना पड़ा।

बच्चों के भविष्य और शिक्षा की चिंता

कोर्ट में अपनी बात रखते हुए समीर ने कहा कि वह आर्थिक रूप से पूरी तरह सक्षम हैं और बच्चों का भरण-पोषण बेहतर तरीके से कर सकते हैं। उन्होंने चिंता जाहिर की कि उनकी पत्नी फिलहाल अपने मायके में रह रही हैं और पूरी तरह अपने बड़े भाई की आय पर निर्भर हैं।

समीर का तर्क है, “मैं दीक्षा के फैसले से असहमत हूं क्योंकि मेरी बेटी की उम्र अभी बहुत नाजुक है। मुझे डर है कि बच्चों को वहां आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ सकता है और उनकी जरूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी। मैं उन्हें बेहतरीन शिक्षा देना चाहता हूं ताकि वे बड़े होकर आत्मनिर्भर बन सकें।”

कानूनी पहलू

यह अर्जी ‘द गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट 1890’ की धारा 7 और धारा 24 के तहत दाखिल की गई है। धारा 7 अदालत को यह अधिकार देती है कि वह नाबालिग के कल्याण को देखते हुए उसके अभिभावक के बारे में आदेश दे सके। वहीं, धारा 24 अभिभावक के कर्तव्यों को निर्धारित करती है, जिसमें बच्चे की कस्टडी, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य जरूरतों को पूरा करना शामिल है।

समीर ने यह भी जोड़ा कि उनका अभी तक तलाक नहीं हुआ है और वह यही चाहते हैं कि पत्नी और बच्चे वापस उनके साथ रहें। फिलहाल इस मामले में उनकी पत्नी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी है।

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