करीब छह साल पहले अमेरिका के ह्यूस्टन स्थित NRG स्टेडियम में एक ऐतिहासिक दृश्य देखने को मिला था। 50,000 से अधिक भारतीय-अमेरिकी नागरिक ‘Howdy Modi’ कार्यक्रम में उमड़े थे। मंच पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ थे। “मोदी-मोदी” के नारों से पूरा स्टेडियम गूंज रहा था। प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप को गर्व के साथ “माय फ्रेंड डोनाल्ड” कहकर सबके सामने पेश किया।
कांग्रेसवुमन तुलसी गबार्ड गदगद थीं। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर की खुशी भी चेहरे पर साफ दिख रही थी। यह पहली बार था जब अमेरिका का राष्ट्रपति किसी प्रवासी भारतीय कार्यक्रम में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा कर रहा था।
लेकिन आज जब डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को “डेड इकोनॉमी” कहा और 25% टैरिफ (शुल्क) लगा दिए, तो वही भारतीय-अमेरिकी समुदाय खामोश क्यों है?
ट्रंप की आलोचना क्यों नहीं कर रहे NRI भारतीय?
वहां के NRI जो उस वक्त दिल्ली से लेकर न्यूयॉर्क तक सोशल मीडिया पर ‘Howdy Modi’ की तस्वीरें शेयर कर रहे थे, आज ट्रंप की आलोचना क्यों नहीं कर रहे? न तो तुलसी गबार्ड ने कुछ कहा, न ही विवेक रामास्वामी की कोई टिप्पणी सामने आई। ऐसा क्यों?
ट्रंप के ट्वीट के 48 घंटे बाद भी प्रवासी भारतीय समुदाय में कोई हलचल नहीं दिख रही है। शायद वीकेंड है और लोग पिकनिक या बारबेक्यू में व्यस्त हैं। हो सकता है भारतीय राजनयिक किसी समर्थन भरे ट्वीट की तलाश में हैं। शायद हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन (HAF) WhatsApp और ईमेल से समर्थन जुटा रहा हो। देखना होगा कि इस सप्ताह की शुरुआत में कोई संगठित प्रतिक्रिया आती है या नहीं।
भारत में ट्रंप के खिलाफ गुस्सा दिखने लगा
भारत में, ट्रंप के खिलाफ गुस्सा अब ट्विटर पर दिखने लगा है। जिस तरह पहले ट्रंप की तारीफें होती थीं, अब उनकी आलोचना हो रही है। लेकिन ये ट्वीट्स ज़्यादातर ऐसे लोगों के हैं जिनका अमेरिका से कोई सीधा वास्ता नहीं है — न वीजा की चिंता, न अमेरिका जाने की योजना।
दूसरी तरफ, अमेरिका में रह रहे भारतीय प्रवासी बेहद सतर्क हैं। अमेरिका के कॉलेजों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स अपने माता-पिता से कह रहे हैं — “सोशल मीडिया पर कुछ विवादित मत लिखिए। ट्रंप की डिजिटल पुलिस आपको ट्रैक कर सकती है। न आप यहां आ पाएंगे, न हम चैन से रह पाएंगे।”
असमंजस में पड़े प्रवासी भारतीय
अब कई भारतीय अमेरिकन अपने साथ पहचान पत्र लेकर चलते हैं, कहीं किसी पुलिस अफसर ने पूछ लिया तो? कुछ लोग जो अभी भी सामाजिक या राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, वे अमेरिकी नागरिक बन चुके हैं। लेकिन जो “नॉट रिटर्निंग इंडियन” की श्रेणी में आते हैं, वे खामोशी ही बेहतर समझते हैं।
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन ने जहां पहलगाम आतंकी हमले पर पोस्ट किए हैं, वहीं ट्रंप के बयान या ऑपरेशन सिंदूर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसा लगता है कि भारतीय राजनयिक अब पर्दे के पीछे समुदाय को फिर से सक्रिय करने की कोशिश कर रहे हैं।
हाल ही में भारत ने अमेरिका में 8 नए काउंसुलर सेंटर खोले हैं — बोस्टन, डलास, सैं जोस जैसे शहरों में। विदेश मंत्रालय ने इसे भारत-अमेरिका रिश्तों को गहरा करने की पहल बताया है, भले ही वर्तमान संबंधों में तनाव हो।
भारतीय-अमेरिकी समुदाय पहले भी कूटनीति का एक अहम हथियार रहा है। 1990 के दशक में भारत ने अमेरिका के कांग्रेस में ‘इंडिया कॉकस’ को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई थी। पीएम नरसिंह राव की नीतियों ने अमेरिका में भारत की साख मजबूत की। 2008 के न्यूक्लियर डील में भी प्रवासी समुदाय की भूमिका निर्णायक रही थी।
लेकिन आज वह सक्रियता कहां है?
USINPAC (यूएस इंडिया पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) जैसे संगठनों की वेबसाइट पर अब भी ट्रंप का कोई ज़िक्र नहीं है। वहां सिर्फ जो बाइडन और डेमोक्रेट नेताओं के साथ तस्वीरें हैं। असल में, पिछले चुनावों में 70% भारतीय अमेरिकन वोटर्स ने डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट दिया था — आंशिक कारण कमला हैरिस का होना भी था, और आंशिक कारण ट्रंप की सख्त इमिग्रेशन पॉलिसी।
अब सवाल है — क्या वे भारतीय-अमेरिकी जो कभी ट्रंप के समर्थक थे, अब भारत के पक्ष में आवाज़ उठा सकते हैं?
प्रधानमंत्री मोदी ने प्रवासी भारतीय समुदाय को हमेशा प्राथमिकता दी है। विदेश दौरों में उनके आयोजनों में NRIs की बड़ी भागीदारी रही है। लेकिन आज जब अमेरिका से रिश्तों में खटास आई है, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि विदेश मंत्रालय इस समुदाय को कैसे फिर से सक्रिय करता है।
इस बीच, पाकिस्तान की रणनीति ज्यादा कारगर साबित हो रही है। वहां के कारोबारी और राजनयिक नेतृत्व ने ट्रंप और उनके परिवार के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए हैं — भले ही उसके तरीके विवादास्पद हों। यह कहना नहीं कि भारत को भी वही रास्ता अपनाना चाहिए, लेकिन कूटनीति में चालाकी भी जरूरी है।
शायद अब समय है कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर और विदेश सचिव विक्रम मिस्री अमेरिका का दौरा करें, समुदाय के नेताओं से मिलें और रिश्तों को बेहतर बनाने की राह तलाशें। ट्रंप के विवादास्पद बयानों के बावजूद, अमेरिका में भारत के लिए और भारत में अमेरिका के लिए सकारात्मक भावना अब भी मौजूद है। यही भरोसा कठिन समय में दोनों देशों के रिश्तों को संभाल सकता है।
लेखक परिचय: संजय बारू एक प्रसिद्ध लेखक और अर्थशास्त्री हैं। उनकी नवीनतम किताब है — ‘Secession of the Successful: The Flight Out of New India’. उक्त लेख मूल रूप से डेक्कन क्रोनिकल द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है.
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