इंट्रो: हाल के दिनों में डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की विनिमय दर (Exchange Rate) में आई गिरावट एक बार फिर सुर्खियों में है। अर्थशास्त्र का सीधा नियम है—जब भारत में आने वाले पैसे की तुलना में देश से बाहर जाने वाला पैसा अधिक होता है, तो रुपया कमजोर होने लगता है। इसका मतलब यह है कि भारतीय रुपये के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ गई है। लेकिन सवाल यह है कि भारत में निवेश को लेकर डेटा क्या कहानी कह रहा है?
व्यापार घाटा और निवेश का गणित
अक्सर रुपये की कमजोरी का मुख्य कारण भारत का ‘व्यापार घाटा’ (Trade Deficit) माना जाता है। आसान शब्दों में कहें तो, भारत निर्यात (Exports) की तुलना में आयात (Imports) अधिक करता है, जिससे करंट अकाउंट घाटा बढ़ता है। यानी देश में डॉलर आ कम रहे हैं और बाहर ज्यादा जा रहे हैं।
लेकिन इस कहानी का हमेशा एक दूसरा पहलू भी रहा है। भारत की विकास क्षमता (Growth Potential) के कारण, हमें हमेशा भारी मात्रा में विदेशी निवेश मिलता रहा है। यह निवेश दो रूपों में आता है:
- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI): जैसे भारत में कोई नई फैक्ट्री लगाना।
- विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (FPI): जैसे शेयर बाजार में स्टॉक खरीदना।
ऐतिहासिक रूप से, इस ‘कैपिटल अकाउंट’ में आने वाला अधिशेष (Surplus) पैसा, व्यापार घाटे की भरपाई कर देता था। लेकिन अब स्थिति बदल रही है।
शुद्ध विदेशी निवेश में भारी गिरावट
ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत में आने वाले “शुद्ध” (Net) विदेशी निवेश में भारी गिरावट आई है, और यही रुपये की कमजोरी का एक बड़ा कारण बन रहा है। यहाँ “शुद्ध” का अर्थ है—भारत आने वाला कुल पैसा और भारत से बाहर जाने वाला कुल पैसा, इन दोनों का अंतर।
FDI के मोर्चे पर चिंताजनक रुझान
अगर हम आंकड़ों (मार्च 2025 तक) पर नजर डालें, तो पता चलता है कि विदेशी निवेशक अब पीछे हट रहे हैं।
- 2021-22 से बदलाव: चार्ट्स बताते हैं कि वित्त वर्ष 2021-22 के बाद से भारत में आने वाले FDI (इनफ्लो) में भारी गिरावट आई है, जबकि भारत से बाहर जाने वाले निवेश (आउटफ्लो) में तेजी से उछाल आया है।
- गंभीर समस्या: यह एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि FPI की तुलना में FDI को बेहतर माना जाता है। FDI के जरिए आया पैसा यह दिखाता है कि विदेशी निवेशक लंबी अवधि के लिए भारत में बने रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
मौजूदा वित्त वर्ष में भी कहानी लगभग वैसी ही है। स्थिति यह है कि विदेशों से भारत में जितना FDI आ रहा है, उससे कहीं ज्यादा निवेश भारतीय कंपनियां विदेशों में कर रही हैं। कई मायनों में यह ‘स्वदेशी’ के आह्वान के ठीक विपरीत है। इसका परिणाम यह है कि “नेट FDI” अब शून्य के स्तर की ओर गिर गया है।
शेयर बाजार (FPI) का हाल
सिर्फ प्रत्यक्ष निवेश ही नहीं, बल्कि शेयर बाजार में आने वाले पैसे (FPI) का भी यही हाल है। डेटा दिखाता है कि नेट FPI भी नकारात्मक (Negative) क्षेत्र में है। इसका मतलब है कि विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार में पैसा लगाने के बजाय, भारतीय लोग विदेशी शेयरों में ज्यादा पैसा लगा रहे हैं।
जब निवेश के दोनों रास्तों (FDI और FPI) से पैसा आने के बजाय देश से बाहर जा रहा हो, तो डॉलर की मांग बढ़ती है और रुपये की कीमत गिरती है।
विरोधाभासी संकेत और सवाल
यह पूरा रुझान काफी चौंकाने वाला और विरोधाभासी है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की अन्य तुलनीय अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ रही है। कायदे से, भारतीय कंपनियों का प्रदर्शन बहुत अच्छा होना चाहिए और विदेशी निवेशकों की कतार भारत में पैसा लगाने के लिए लगी होनी चाहिए।
लेकिन जैमीनी हकीकत कुछ और बयां कर रही है। ऐसे में एक बड़ा सवाल उठता है—क्या GDP के विकास दर के आंकड़े भारत की आर्थिक गति को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं, या निवेशक कुछ ऐसा देख रहे हैं जो आम नजरों से छिपा है?
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