भारी गहमागहमी के बीच कांग्रेस ने पंजाब में आखिरकार परिवर्तन कर लिया। पिछले 24 घंटों में पहले तो मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पार्टी पर हमला बोल दिया।
फिर कैप्टन को सीएम की सीट से हटाकर पार्टी ने आलाकमान को फैसले के लिए अधिकृत किया। लेकिन विकल्प चुनने के लिए जल्दबाजी में बगैर तैयारी के उठाए गया अगला कदम ही गलत पड़ गया। राजनीतिक हलकों में हिंदू मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चा तब तक चलती रही, जब तक कि अंबिका सोनी, दौड़ में जिनका नाम सबसे आगे चल रहा था, ने पार्टी को यह याद नहीं दिलाया कि पंजाब के सीएम को सिख होना चाहिए।
पार्टी ने आखिरकार मुख्यमंत्री के लिए दलित विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को चुना, जो अमरिंदर सिंह की कैबिनेट में रहते हुए मुद्दों को उठाते रहे थे।
यह एक साहसिक दांव है, जिसे पार्टी ने ऐसे समय में लिया है जब शिरोमणि अकाली दल-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन ने 2022 में सत्ता में आने पर किसी दलित को उपमुख्यमंत्री का पद देने का वादा कर रखा है। सत्ता की अन्य गंभीर दावेदार आम आदमी पार्टी (आप) ने भी कुछ ऐसा ही सोच रखा है।
जाट सिख समुदाय के विधायक दल के नेता की सदियों पुरानी प्रथा को तोड़ते हुए कांग्रेस अनुसूचित जाति से राज्य में मुख्यमंत्री बनाकर सामाजिक न्याय की वकालत करने वाली पार्टी के रूप में अपनी साख जमा सकती है।
आंकड़े बताते हैं कि राज्य की राजनीति में जाट सिखों का वर्चस्व है, जबकि वहां की आबादी में 30 प्रतिशत तक दलित हैं। फिर भी सामाजिक समीकरण दलितों के पक्ष में नहीं रहते हैं।
इस कदम का असर और आने वाले दिनों में यह कैसे काम करता है, यह राजनीतिक समीकरणों को बदल सकता है। फिर भी, चुनाव के इतने करीब सरकार का नेतृत्व करने के लिए नए व्यक्ति को लाना बहुत बड़ा जोखिम है। इतिहास देखने से पता चलता है कि चुनाव के करीब इस तरह का बदलाव हमेशा मौजूदा पार्टी के लिए अनुकूल परिणाम नहीं देता है।
दिल्ली में 1998 में साहिब सिंह वर्मा के स्थान पर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना देने से भारतीय जनता पार्टी को लाभ नहीं मिला। तब शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में आ गई और उन्होंने कांग्रेस की सरकार को दो और कार्यकालों के लिए बनाए रखा।
पंजाब में भी यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस ने चुनाव के इतने करीब अपना नेता बदला है। 1996 में राजिंदर कौर भट्टल को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था, जो अब तक पंजाब में सीएम बनने वाली एकमात्र महिला हैं। तत्कालीन मुख्यमंत्री हरचंद सिंह बराड़ के खिलाफ असंतुष्टों का नेतृत्व करने के बाद पार्टी ने उन्हें जिम्मेदारी दी थी, जिन्होंने बेअंत सिंह की हत्या के बाद पदभार ग्रहण किया था।
1997 के विधानसभा चुनावों में 117 सदस्यीत विधानसभा में कांग्रेस केवल 14 सीटें जीतने में सफल रही। तब प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था। प्रदेश कांग्रेस तब अंबिका सोनी की कमान में थी और कांग्रेस में गुलाम नबी आजाद राज्य मामलों के प्रभारी महासचिव थे।
बहरहाल, इस सीमावर्ती राज्य में नए मुख्यमंत्री को तत्काल दो चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। एक राजनीतिक मोर्चे पर और दूसरी प्रशासनिक मोर्च पर। मौजूदा पंजाब विधानसभा का कार्यकाल 27 मार्च, 2022 तक है, यानी राज्य में अगला चुनाव उसी को कराना होगा।
इस तरह अगली विधानसभा के गठन तक नए नेता के तहत कांग्रेस सरकार के लिए छह महीने से भी कम का समय है। हकीकत में यह समय और कम हो जाएगा, क्योंकि चुनाव आयोग द्वारा कार्यक्रम की घोषणा करने और आदर्श आचार संहिता के तुरंत लागू होने के बाद सरकार लंगड़ी हो जाती है।
प्रशासनिक मोर्चे पर नए मुख्यमंत्री के पास उन सभी वादों को पूरा करने के लिए केवल इतना ही समय है, जिसे लेकर प्रदेश कांग्रेस प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू और उनके समर्थकों ने अमरिंदर सिंह की सरकार के खिलाफ आवाज उठाई थी।
असंतुष्टों के अनुसार जो वादे अधूरे रह गए हैं, उनमें बेअदबी के मामलों में शामिल लोगों और इसके कारण पुलिस फायरिंग के दोषियों को न्याय के कठघरे में लाना, नशीली दवाओं की जांच करने में सरकार की अक्षमता और अवैध खनन शामिल हैं।
हालांकि नए सीएम और उनका प्रशासन तेजी से काम करना चाहेंगे। लेकिन यह कोई भी अनुमान लगा सकता है कि नौकरशाही इसे कैसे आगे बढ़ा सकेगी, खासकर जब राज्य चुनावों के मुहाने पर खड़ा है।
हालांकि नए मुख्यमंत्री को प्रशासन चलाने का काफी कुछ अनुभव है, फिर भी उन्हें अपनी टीम बनाने, उसे टिकाने और मुख्यमंत्री कार्यालय के कामकाज पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए समय की आवश्यकता होगी।
कांग्रेस के मुख्यमंत्री में अभी भी लोगों को यह समझाने की क्षमता हो सकती है कि काफी कुछ करने की कोशिशों के बावजूद वास्तव में समय ही कम पड़ गए। ऐसा संदेश यकीनन ईमानदार इरादे को व्यक्त करने और सबसे अच्छा करने का वादा करने के लिए होगा, ताकि चुनाव में सरकार को नया जीवन मिल सके।
कहना ही होगा कि यह एक राजनीतिक सौदेबाजी होगी, जो वास्तव में कमजोर जमीन पर और अंतर्विरोधों से भरा होगा। जिस दिन से नई सरकार सत्ता संभालेगी, उसी दिन से विधायकों की उम्मीदें दो मायने में ऊंची होंगी। अमरिंदर सिंह सरकार से परेशान लोगों के बकाया मुद्दों को हल करना और फिर से पार्टी का टिकट हासिल करने के लिए आधार तैयार करना।
यह उत्तरार्द्ध है जो विधायकों के लिए गोंद बन सकता है, जो यह सुनिश्चित करने के लिए विधायक दल के नए प्रमुख से चिपके रह सकते हैं, ऐसा कुछ कर सकते हैं जो हास्य-विनोद के स्वभाव वाले राज्य के पार्टी प्रमुख को भी पसंद आए। जब पार्टी ‘सिटिंग गेटिंग’ के पुराने कांग्रेस फॉर्मूले के बीच संभावित उम्मीदवारों की सूची तैयार करेगी, तो इन दोनों को चलेगी ही। लेकिन उन्हें उन आंतरिक सर्वेक्षणों को देखना होगा, जो वर्तमान विधायकों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को दर्शाता है।नए मुख्यमंत्री को सड़क पर उतरते ही सीधे दौड़ लगानी है।