लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने मंगलवार को न्यायाधीश यशवंत वर्मा के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित करने की घोषणा की है। न्यायाधीश के सरकारी आवास से बड़ी रकम की बरामदगी के बाद उनकी महाभियोग की प्रक्रिया तेज़ हो गई है।
इस कमेटी में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरविंद कुमार, मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मनींदर मोहन और वरिष्ठ अधिवक्ता बी.वी. आचार्य शामिल हैं।
स्पीकर ने महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा, “यह कमेटी जल्द से जल्द अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। रिपोर्ट प्राप्त होने तक प्रस्ताव स्थगित रहेगा।”
संविधान के तहत महाभियोग की प्रक्रिया
महाभियोग की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत तय है। लोकसभा द्वारा गठित यह कमेटी जांच कर अपनी रिपोर्ट स्पीकर को सौंपेगी, जिसे स्पीकर सदन के समक्ष रखेंगे।
इस कमेटी को साक्ष्य तलब करने और गवाहों से पूछताछ करने का अधिकार है। यदि न्यायाधीश दोषी पाया जाता है, तो इस रिपोर्ट को उस सदन में अपनाया जाएगा जहां प्रस्ताव लाया गया था।
इसके बाद प्रस्ताव पर मतदान होगा, जिसे राज्यसभा में भी दोहराया जाएगा।
नियमों के अनुसार, दोनों सदनों में “उपस्थित और मतदान करने वाले” सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से महाभियोग पारित होना आवश्यक है।
चूंकि केंद्र की सरकार और विपक्ष दोनों न्यायाधीश वर्मा के महाभियोग पर सहमत हैं, इसलिए प्रक्रिया अपेक्षाकृत सुचारू रूप से आगे बढ़ेगी।
अब तक क्या हुआ?
यह कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायाधीश वर्मा की उस याचिका खारिज करने के बाद आई है, जिसमें उन्होंने इन-हाउस जांच रिपोर्ट और तत्कालीन CJI की राष्ट्रपति को हटाने की सिफारिश को चुनौती दी थी।
मार्च 14 को दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास में आग लगने के बाद वहां से 1.5 फीट से अधिक ऊंचाई में नकदी के स्टैक बरामद हुए थे। उस वक्त न्यायाधीश वहां मौजूद नहीं थे।
इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट से अलीगढ़ हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया और उनके सभी न्यायिक कार्य रोक दिए।
सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस जांच समिति भी गठित की, जिसने 55 गवाहों के बयान लिए और आरोपों में “पर्याप्त तथ्य” पाए।
जांच समिति ने पाया कि न्यायाधीश वर्मा और उनके परिवार के सदस्यों का उस कमरे पर “सक्रिय नियंत्रण” था जहां नकदी मिली और उनकी हटाने की सिफारिश की।
न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि जांच समिति ने पूर्व निर्धारित सोच से काम किया और उन्हें बचाव का उचित मौका नहीं दिया।
हालांकि, शीर्ष अदालत ने कहा कि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ है और याचिका को खारिज कर दिया।
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