बिहार जाति सर्वेक्षण: समाज में नाई जाति का योगदान - Vibes Of India

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बिहार जाति सर्वेक्षण: समाज में नाई जाति का योगदान

| Updated: November 1, 2023 19:20

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने नई श्रृंखला शुरू की है. छठा भाग नाई जाति के बारे में है.

जातियां महज श्रम का वर्गीकरण नहीं है. जैसा कि पश्चिम के देशों में होता है. वहां एक ही परिवार के लोग अपने पेशे के आधार पर मवेशीपालक भी हो सकते हैं और लकड़ी का फर्निचर बनानेवाले बढ़ई भी. वहां एक ही परिवार का कोई सदस्य मोची भी हो सकता है. लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. यहां पेशा को जाति मान लिया गया है और इसी के आधार पर सामाजिक कायदे-कानून बना दिए गए हैं.

आज हम जिस जाति के बारे में बता रहे हैं, उस जाति के लोग हर जगह मिल जाएंगे. फिर चाहे वह शहर हो या गांव. वे हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. मुसलमानों में इन्हें हज्जाम कहते हैं और इनके द्वारा किए गए काम को हजामत बनाना. हिंदू धर्म में इनके लिए खूब सारे नाम हैं. जैसे कि नाऊ, नौआ, क्षौरिक, नापित, मुंडक, मुण्डक, भांडिक, नाइस, सैन, सेन, सविता-समाज, मंगला इत्यादि.

ये बेहद संयमी होते हैं और अपना काम पूरी लगन से करते हैं. ये लोगों को सुंदर बनाते हैं. उनके बेतरतीब बालों को सजाते-संवारते हैं. कहना अतिश्योक्ति नहीं कि इनके हाथ लगाने भर से लोगों के चेहरे की चमक बढ़ जाती है.

अलग-अलग राज्यों में इनके लिए अलग-अलग नाम हैं. पंजाब इनमें अलहदा है. वहां तो प्यार से लोग इन्हें राजा तक कहते हैं. हिमाचल प्रदेश में कुलीन, राजस्थान में खवास, हरियाणा में सेन समाज या नपित, और दिल्ली में नाई-ठाकुर या फिर सविता समाज.

बिहार में इस जाति के लोगों को अति पिछड़ा माना गया है. यह पिछड़ा वर्ग का ही हिस्सा है. रही बात आबादी की, तो हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार में इनकी आबादी 20 लाख 82 हजार 48 है, जो कि हिस्सेदारी के लिहाज से बेशक केवल 1.5927 प्रतिशत है, लेकिन इस जाति का समाज व सियासत में खास स्थान है.

समाज में स्थान का मामला तो यह है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार में ब्राह्मण जाति के लोगों के साथ ही इस जाति के लोगों की अहम भूमिका रहती है. लेकिन ये ब्राह्मण के जैसे सम्मानित नहीं हैं. उत्तर भारत में तो एक व्यंग्यात्मक कहावत तक है, जिसके जरिये इनका सार्वजनिक अपमान तक किया जाता है- पंछी में कौआ, जाति में नौवा. मतलब यह जैसे कौआ सबसे चालाक पंछी और सर्वाहारी होता है, वैसे ही हिंदू जाति में नौवा होते हैं.

लेकिन ये अछूत नहीं होते, क्योंकि इन्हें अछूत करार दिए जाने का नुकसान इस समाज के उन लोगों को होता, जो इनसे सेवाएं कराते हैं. वैसे भी किसी को अपनी हजामत बनवानी है तो उन्हें अपने चेहरे को छूने की अनुमति देनी ही होगी. इन्हें सछूत बनाने की चर्चा अथर्ववेद में भी है-

‘ओम् आयमगन्तसविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि..’(अथर्ववेद .6.सू.68 म. 1.)

यह श्लोक बताता है कि विवाह संस्कार में मुख्य नाई होते हैं, जो कन्या के लिए वर खोजते हैं, वर की योग्यता की जांच करते हैं. वाग्दान संस्कार कराते हैं और प्रत्येक कार्य इनकी सहमति से होता है और इसी कारण ये सबसे पहले पंचवस्त्र पहनाए जाने के अधिकारी हैं.

भारतीय समाज में सबसे बड़ा विरोधाभास यह रहा है कि श्रम को महत्वहीन माना गया है. लेकिन यदि मानव सभ्यता के विकास के इतिहास को विज्ञानपरक दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि नाई वे पहले व्यक्ति रहे होंगे, जिनके जहन में यह बात आई होगी कि आदमी को हजामत बनाकर रखनी चाहिए ताकि वह सुंदर दिख सके. और यह विचार आते ही उन्हेंने हजामत बनाने की कला का आविष्कार किया.

यदि कोई मानव सभ्यता के इतिहास को इस कसौटी पर जांचे कि यदि यह आविष्कार नहीं किया गया होता तो क्या आदमी और जानवर के बीच कोई फर्क होता? यदि इतिहास को ही आधार मानें तो नाइयों के उद्भव का काल नवपाषाण युग के बाद का समय रहा होगा जब लोहे का आविष्कार हुआ होगा. कैंची और अन्य औजार तो बिना लोहे के संभव ही नहीं था.

सभ्यता के विकास में नाई जाति के लोगों की भूमिका इतनी है कि कोई चाहकर भी खारिज नहीं कर सकता. वे इस धरती पर पहले शल्य चिकित्सक थे, जिन्होंने अपने औजारों से अनंत लोगों के पांवों से कांटे निकाले. उनके जख्मों को ठीक किया. फिर चाहे वह कोई राजा हो या कोई जनसामान्य. नाइयों ने हमेशा सबकी सेवा की है. वे अछूतों की हजामत भी बनाते हैं और सछूतों की भी. महत्वपूर्ण है कि इस काम में वे अकेले नहीं होते. उनके घर की महिलाएं भी समाज में योगदान देती हैं. आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में नाई समाज की महिलाएं सभी जातियों के महिलाओं की सेवा करती हैं. उनके नाखून काटती हैं और उनके पांव में आलता लगाती हैं.

तो इस तरह से नाई अपने परिवार के साथ मिलकर श्रम करते हैं. पहले इनकी मजदूरी को जजमनका कहा जाता था. हर खेतिहर के यहां इनका हिस्सा तय होता था. कोई इन्हें एक कट्ठा में एक बोझा देता, तो कोई बहुत खुश होकर दो बोझा अनाज दे देता. और इस तरह भूमिहीन होने के बावजूद भी नाई समाज के लोगों के खलिहान में फसल होती थी.

लेकिन अब जजमनका का जमाना नहीं रहा. वैश्वीकरण ने इनकी दुनिया बदल दी है. अब इन लोगों ने भी जजमनका छोड़ दिया है. वे नकद कारोबार करते हैं.

राजनीति के लिहाज से देखें, तो कर्पूरी ठाकुर अवश्य ही बिहार के सुविख्यात राजनेता रहे जो दो बार मुख्यमंत्री बने. उनके द्वारा लागू मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं ने इस देश में पिछड़ा वर्ग की राजनीति को अहम दिशा दी. लेकिन वर्तमान में यह समाज अपने लिए एक नायक तलाश रहा है. फिलहाल इसकी नियति यही है.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं. यह लेख द वायर वेबसाइट पर पहले प्रकाशित हो चुका है.)

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