चुनाव शिवसेना बनाम शिवसेना की लडाई ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया है कि चुनाव चिह्न कैसे जारी किए जाते हैं। यहां हम चुनाव चिह्न को लेकर सबकुछ जानने की कोशिश करते हैः
चुनाव चिह्न आरक्षण और आवंटन (Reservation and Allotment) आदेश, 1968 संसदीय (parliamentary) या विधानसभा (assembly) चुनाव में राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों के लिए अलग-अलग पहचान वाले चुनाव चिह्न देता है। ऐसा सिर्फ चुनाव आयोग ही कर सकता है। इस नाते वह पहले आम चुनाव के बाद से चुनाव प्रतीकों (poll symbols) की लिस्ट रख रहा है। इनमें जहां मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य की पार्टियां और उनके उम्मीदवार के लिए उपयोग के लिए विशेष चिह्न ‘आरक्षित’ (reserved) हैं, वहीं पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त (registered unrecog) पार्टियों या निर्दलीय (independent) उम्मीदवारों के स्वतंत्र चिह्न शामिल हैं।
सभी चुनाव चिह्न चुनाव आयोग की संपत्ति हैं। स्वतंत्र चिन्हों (free symbols) की सूची तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वे एक दूसरे या आरक्षित चिन्हों से मिलते-जुलते न हों। स्वतंत्र चिह्न आसानी से पहचाने जाने योग्य वस्तुओं (identifiable items) के होते हैं, ताकि अनपढ़ मतदाता भी समझ जाए और उम्मीदवारों में फर्क कर सके। फ्री चिन्हों की सूची आखिरी बार 23 सितंबर, 2021 को अपडेट की गई थी, जिसमें 197 प्रविष्टियां (entries) थीं।
यह सूची इस मायने में अनोखी है कि कुछ स्वतंत्र चुनाव चिह्न तब आरक्षित हो जाते हैं, जब किसी नई पार्टी को पर्याप्त वोट मिलते हैं या राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त करने के लिए चुना जाता है। साथ ही, जब कोई मान्यता प्राप्त पार्टी राज्य की पार्टी का दर्जा खो देती है, तो उसके लिए आरक्षित चिह्न को कम से कम छह साल तक नहीं छुआ जाता है। इसके बाद, आरक्षित चिह्न को फ्री घोषित किया जा सकता है। एक नई पार्टी फ्री वाली सूची से तीन चिन्हों को चुन सकती है या सूची में नहीं होने वाले चिह्न भी मांग सकती है। चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करने के लिए प्रस्तावित चिन्हों के नामों और डिजाइन को देखता है कि वे किसी अन्य चिह्न के समान तो नहीं हैं। चुनाव चिह्न का आदेश उन राज्यों में उस राज्य स्तरीय पार्टी के लिए आरक्षित (reserved) चिह्न के आवंटन (allotment) को भी प्रतिबंधित (restricts) करता है, जहां इसे मान्यता प्राप्त नहीं है; या जिसका धार्मिक या सांप्रदायिक (religious or communal) अर्थ है।
फिर प्रचार अभियान के दौरान जानवर के साथ क्रूरता के बारे में शिकायतें मिलने के बाद चुनाव आयोग ने खुद 1991 में एक निर्णय लिया। वह यह कि चुनाव प्रचार के दौरान किसी जानवर या पक्षी को दिखाने वाला कोई चिन्ह वह किसी को नहीं देगा। 2005 में चुनाव आयोग ने धार्मिक/सांप्रदायिक (religious/communal) आधार पर पार्टी को नाम देना भी बंद कर दिया। यही कारण है कि चुनाव आयोग ने शिवसेना के दोनों गुटों को ‘त्रिशूल’ और ‘गदा’ (mace) चुनाव चिन्ह देने से मना कर दिया।
आरक्षित चुनाव चिन्ह (reserved symbols) क्या हैं और इस लिस्ट की कितनी बार समीक्षा की जाती है?
आरक्षित चुनाव चिन्ह (reserved symbols) केवल मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों के पास होते हैं। एक या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त एक राज्य स्तरीय पार्टी न केवल उन राज्यों में अपने आरक्षित प्रतीक का उपयोग करने का हकदार है, बल्कि यदि वह उन राज्यों से चुनाव लड़ने का फैसला करती है जहां उसे मान्यता नहीं है, तो उस राज्य में भी अपने लिए आरक्षित चिन्ह पर पहला अधिकार उसी का होगा। यही कारण है कि किसी मान्यता प्राप्त राज्य पार्टी का आरक्षित चिन्ह अन्य पार्टियों के उम्मीदवारों द्वारा उपयोग के लिए आवंटित नहीं किया जाता है। यहां तक कि उन राज्यों में भी, जहां इसे मान्यता प्राप्त नहीं है।
कैसे चुने जाते हैं फ्री वाले चुनाव चिह्न?
चुनाव आयोग फ्री वाले चिह्नों को चुनता है जो आम उपयोग की वस्तुओं पर आधारित होते हैं। उनका एक अलग आकार और रूप रहता है, ताकि वे मतपत्र (ballot paper) में एक उम्मीदवार को दूसरे से अलग दिखा सकें। गैर-मान्यता प्राप्त (Unrecognised) या नई पार्टियां और चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले निर्दलीय या तो फ्री वाले चिह्नों की सूची में से अपने लिए एक चुन सकते हैं या तीन नए चिह्नों का प्रस्ताव कर सकते हैं। पहले मामले में, वे लिस्ट में से 10 चिह्नों के नाम प्राथमिकता (preference) बताते हुए दे सकते हैं। वे विधानसभा की अवधि (assembly term) खत्म होने से तीन महीने पहले तक तीन नए चिन्हों का प्रस्ताव कर सकते हैं।
जानवर और पक्षी लिस्ट से बाहर क्यों हैं?
मार्च 1991 से पहले चुनाव आयोग ने कई पक्षियों और जानवरों को चुनाव चिन्ह के रूप में रखा था। हालांकि, 1980 के दशक के अंत में पाया गया कि ऐसे पक्षियों और जानवरों को उम्मीदवारों द्वारा क्रूरता के साथ दिखाया जा रहा है। एक मामले में बताया गया था कि पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा सार्वजनिक सभाओं में सैकड़ों कबूतरों को ‘कबूतर’ चिह्न के साथ मार दिया गया था। ऐसे में मार्च 1991 में चुनाव आयोग ने किसी भी जानवर या पक्षी को चुनाव चिन्ह के रूप में नहीं देने का फैसला किया। 5 मार्च 1991 को फ्री वाले अधिसूचित (notified) चिन्हों की सूची से कबूतर, चील, घोड़ा, ज़ेबरा, बकरी और मछली को हटा दिया गया। जानवरों को दर्शाने वाले आरक्षित चिह्नों वाले दलों के लिए चुनाव आयोग ने उनसे खुद छोड़ देने का अनुरोध किया। ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (जिसका चिह्न शेर है) और मिजो नेशनल फ्रंट (बाघ चिह्न) चुनाव आयोग के अनुरोध पर सहमत हो गए। लेकिन बसपा, एजीपी और सिक्किम संग्राम परिषद (सभी के चुनाव चिह्न ‘हाथी’) और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी और हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (‘शेर’) ने यह तर्क देते हुए मानने से इनकार कर दिया कि वे बड़े जानवरों को चित्रित करते हैं, जिनके साथ क्रूरता (cruelty) नहीं की जा सकती।
क्या कोई पार्टी अपने लिए दूसरा चिह्न मांग सकती है?
हां, ऐसे कई मामले सामने आए हैं। विभाजन और विलय के कारण कांग्रेस और भाजपा दोनों के चुनाव चिह्न बदल गए हैं। जैसे, 1952 और 1969 के बीच कांग्रेस का चुनाव चिह्न ‘जुए ढोने वाले बैलों की एक जोड़ी’ था। इंदिरा गांधी ने जब अपनी पार्टी INC (R) बना ली तो पुराने चिह्न को ‘गाय और दूध पीता बछड़ा’ कर दिया गया था। तब ‘मूल’ (original) कांग्रेस ने ‘जुए वाले बैल’ (bullocks carrying yoke) चिह्न को बरकरार रखा था। कांग्रेस का चुनाव चिह्न इस समय ‘पंजा’ है, जो पहली बार 1977 में इस्तेमाल किया गया था। इसी तरह 1951 से 1977 तक भारतीय जनसंघ (BJS) का मूल चुनाव चिह्न ‘दीपक’ (oil lamp) था। 1977 में जनता पार्टी में बीजेएस के विलय के बाद उसका चिह्न ‘हल (plough) के साथ किसान’ में बदल गया। भाजपा का वर्तमान चुनाव चिह्न कमल है, जो उसे 1980 में मिला। तब जनसंघ के पूर्व सदस्य जनता पार्टी से अलग होकर भाजपा नाम से पार्टी बना ली थी।
क्या एक स्वतंत्र और आरक्षित चिह्न एक-दूसरे के समान हो सकते हैं?
नहीं। न केवल एक स्वतंत्र और आरक्षित चिह्न के बीच कोई समानता नहीं हो सकती है, बल्कि किसी भी चुनाव चिह्न के बीच भी, चाहे वह स्वतंत्र हो या आरक्षित। उदाहरण के लिए, शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट द्वारा मांगा गया ‘गदा’ प्रतीक लट्टू (spinning top ) के समान पाया गया। उसकी अन्य वरीयता (preference) में ‘सूर्य (बिना किरणों)’ का चिह्न, सेब, गोभी या फुटबॉल जैसे नाम थे। चुनाव चिह्नों को आकार और रंग-रूप में एक-दूसरे से अलग रखने के पीछे विचार यह है कि चुनाव में किसी भी तरह की गड़बड़ी न हो।
Also Read: ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 121 देशों में 107वें स्थान पर खिसका