लोकतांत्रिक शासन के मुखिया के रूप में निरंकुश नेता अक्सर इस बात को दोहराते हैं कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष का होना महत्वपूर्ण होता है। लेकिन वे थोड़ा-सा अवसर मिलते ही विपक्ष को कमजोर कर देते हैं। और, जब एक जीवंत विरोधी की जरूरत पर मुंह फेरने की बात आती है, तो कोई पीछे नहीं हटता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के लगभग आठ वर्षों में विपक्ष के लिए संस्थागत स्थान कम होता गया है। सबसे पहले, विपक्षी दल के रूप में मान्यता से इनकार करके, क्योंकि कांग्रेस ने लोकसभा में ‘आधिकारिक’ विपक्षी दल के रूप में मान्यता की खातिर आवश्यक सीटों की संख्या से कम जीती थी। बाद में, संसदीय प्रक्रियाओं को ही कमतर कर दिया गया, जिससे सदन में बहस की गुंजाइश बनती और अंततः सरकार की नीति को बदलने के लिए दबाव डाला जा सकता।
लाख कोशिशों के बावजूद विपक्ष के लिए जगह फिर भी बनी हुई है। हालांकि यह हमेशा पार्टी प्रणाली के भीतर नहीं हो सकता है, जैसा कि मोदी को पिछले साल तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए मजबूर किया गया था और इससे पहले 2015 में जब उन्होंने भूमि अधिग्रहण बिल वापस ले लिया था।
2014 के बाद से, जबसे वर्तमान शासन ने विपक्ष को हाशिए पर डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, मोदी/भाजपा गठबंधन को चुनौती देने की क्षमता रखने वाले विभिन्न दलों के नेताओं ने भी सरकार के लिए दूर से खतरा पैदा करने के लिए अकेले या एक साथ बहुत कम प्रयास किए हैं।
विपक्षी दलों के खिलाफ मोदी का अभियान चार स्तंभों पर टिका है। एक, वे सभी वंशवादी हैं। दूसरा, वे भ्रष्ट हैं और अतीत में जब भी उन्हें अवसर मिलता है, वे गरीबों के लिए निर्धारित संसाधनों की चोरी करते हैं।
विपक्षी दलों के खिलाफ तीसरा आरोप यह है कि उनके पास भविष्य के लिए सुसंगत दृष्टि नहीं है और उनका अस्तित्व- यहां तक कि उनके द्वारा बनाए गए गठबंधन – पूरी तरह से ‘मोदी के विरोध’ पर आधारित है।
चौथा, वे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ और भारत के बाहर और साथ ही इसके भीतर स्थित राष्ट्र के ‘दुश्मनों’ के साथ मिलकर काम करते हैं। इस बहुसंख्यक चरित्र को सीधे शीर्ष नेताओं द्वारा तय नहीं दिखाया जाता है, लेकिन प्यादे यानी उनके कार्यकर्ता ऐसा करते हैं- जैसे हिजाब, नवरात्र के दौरान मांस पर प्रतिबंध, इस समय खुले स्थानों में शुक्रवार की प्रार्थना, मंदिर-मस्जिद विवाद और कुछ अन्य ‘मेगा परियोजनाएं’।
पहाल आरोप सीधे दिमाग के लिए सबसे ‘उचित’ है। अब हाशिए पर चली आ रही कम्युनिस्ट पार्टियों, आम आदमी पार्टी और कुछ अन्य छोटी पार्टियों को छोड़कर अधिकतर पार्टियों के प्रमुख नेता या तो राजनीतिक परिवारों से हैं या अपनी विरासत को बढ़ाने में लगे हैं। वंशवादी राजनेताओं के बीच नवीन पटनायक एक अजीब संयोग हैं, क्योंकि वह अपने वंश को कायम रखने की दिशा में काम नहीं कर रहे हैं। विपक्षी खेमे में वस्तुतः हर विभाजन का अर्थ एक नए राजनीतिक राजवंश का उदय है। उदाहरण के लिए कभी एकजुट जनता परिवार की कई शाखाएं अब अलग-अलग परिवारों के नेतृत्व में हैं।
अधिकांश विपक्षी दलों के शीर्ष पर राजनीतिक परिवारों के नेताओं की उपस्थिति मोदी को न केवल इस मुद्दे पर आक्रामक होने में सक्षम बनाती है, बल्कि इस तथ्य को रेखांकित करने का मौका भी प्रदान करती है कि वर्तमान में भाजपा के पास नेताओं का एक विशाल समूह है। कैबिनेट तक में जो लोग हैं, पार्टी में उनके पिता या पिछली पीढ़ी के कोई और शामिल थे। यह सक्रिय रूप से अन्य दलों, विशेष रूप से कांग्रेस के राजवंशों को भी आकर्षित करता है।
मोदी विरोध के अलावा विपक्षी दलों के भ्रष्ट और बेबुनियाद होने का आरोप धारणागत हैं और अपनी परिकल्पना को सफलतापूर्वक प्रचारित करने में भाजपा की सफलता के बैरोमीटर हैं। जैसे पार्टी ने कथित 2-जी घोटाले का लाभ उठाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडाबरदार होने की प्रमुख भूमिका अपना ली थी, जो उचित जांच के बाद बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया अभियान निकला।
विपक्षी दल भाजपा की ‘विफलताओं’ और ‘वादों’ को पूरा न करने का फायदा उठाने में विफल रहे हैं। चाहे वह काले धन की ‘वापसी’ हो या हर गरीब के बैंक खाते में 15 लाख रुपये जमा करने का बहुप्रचारित जुमला। दरअसल वैध आधार पर आरोप लगाने के बजाय विपक्ष ने खुद को अपने खिलाफ आरोपों से इनकार करने तक सीमित कर लिया है।
इस शासन द्वारा शुरू किए गए चुनावी बांडों को सार्वभौमिक रूप से चुनावी लोकतंत्र का प्रमुख विकृतकर्ता माना जाता है। विपक्षी दल यह प्रदर्शित करने में असमर्थ रहे हैं कि भाजपा के ईमानदार होने के दावे उस प्रणाली को लेकर खोखले हैं, जो पार्टी को खाता बही में संभवतः बेहिसाब धन के प्रवाह को वैध बनाता है।
विपक्षी दलों को सुदूर अतीत से कुछ सबक लेने की जरूरत है। खासकर उन दिनों से जब कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद प्रमुख राजनीतिक दल थी, जब इसे राष्ट्रीय आंदोलन के उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया गया था। राजनीतिक रूप से दक्षिणपंथी दलों- जनसंघ, हिंदू महासभा और उनके जैसे अन्य ने स्वतंत्रता को ‘विकृत’ माना था, क्योंकि राष्ट्र के बारे में उनकी दृष्टि नेहरूवाद से अलग थी। लेकिन 1950 और 1960 के दशक में उन्होंने अपने वैचारिक दृष्टिकोण को एक तरफ रख दिया और अधिकांश मुद्दों पर आमने-सामने न होने के बावजूद अन्य दलों के साथ सामरिक गठबंधन किए। इससे सिर्फ कांग्रेस को बाहर रखा। आज के विपक्षी दलों की तरह, जो नरम-हिंदुत्व कार्ड खेलते हैं, इन पार्टियों ने तब अर्ध-नेहरूवादी खेल नहीं खेला, बल्कि विरोध करने के लिए विशिष्ट मुद्दों को उठाया।
राहुल गांधी ने हाल ही में मायावती पर तंज कसा और उस प्रस्ताव को सार्वजनिक किया, जिसे उन्होंने निजी तौर पर दिया था। बसपा नेता ने अलग तरह से इसका जवाब दिया। अगर गांधी को लगता था कि उन पर निशाना साधने की जरूरत है, तो ‘प्रस्ताव’ तब बेईमानी था। किसी भी तरह से इस सबसे किसी और को नहीं, बल्कि सत्ताधारी पार्टी को फायदा हुआ। एक समाचार पत्र के पत्रकारों के साथ बातचीत में पूर्व संपादक/पत्रकार/केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने याद दिलाते हुए कहा, “गुलिवर के पतन का कारण लिलिपुटियन थे।” यह विपक्षी एकता के सूचकांक पर मूल्य बढ़ाने के प्रयास न करके केवल भाजपा के उद्देश्य की पूर्ति करेगा।
मोदी के खिलाफ मुख्य आरोप, यहां तक कि उनकी पार्टी के भीतर भी- हां, अंदर खरबराहट है – यह है कि वह किसी भी रूप में असहमति को बर्दाश्त नहीं करते हैं। अप्रैल 2019 में एक ब्लॉग में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को याद दिलाया था कि इसके मूल मूल्यों में राज्य संस्थानों की “स्वतंत्रता, अखंडता, निष्पक्षता और मजबूती” के लिए प्रतिबद्धता शामिल है। उन्होंने कहा था, पार्टी के लिए वरीयता का क्रम हमेशा “राष्ट्र पहले, पार्टी दूसरे और स्वयं अंतिम” था। इससे पहले 2015 में अन्य दिग्गजों के साथ उन्होंने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति पर चिंता जताई थी।
1980 और 1990 के दशक की शुरुआत में, जब कांग्रेस ने शासन किया और इसका विरोध कई दलों के साथ होने लगा था, भाजपा ने ‘एक भिन्न तरह की पार्टी’ होने का वादा करके अपने लिए जगह बनाई।
आठ वर्षों में लोगों ने भाजपा के बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण को काफी हद तक स्वीकार कर लिया है, लेकिन उनकी हार – जैसा कि उत्तर प्रदेश के फैसले में स्पष्ट है- उनके द्वारा एक ‘वास्तविक’ विकल्प की अनुपस्थिति को महसूस करने के कारण अलग रखा गया है।
कोई भी चुनौती देने वाला या उनका समूह, संघ के स्तर पर सत्ता में एक अवसर के लिए समर्थन की उम्मीद कर सकता है और केवल राज्यों तक ही सीमित नहीं रह सकता है। लेकिन तभी, जब वे मूल स्वरूप में मोदी से अलग हों।
मोदी भी जानते हैं कि भारत के लोगों की प्राथमिक भावना लोकतांत्रिक है। यही कारण है कि डी-शब्द का बार-बार आह्वान किया जाता है। नागरिकों के कर्तव्यों पर जोर देते हुए ‘अधिक अनुशासन’ और ‘अधिकारों में कटौती’ के आवधिक समर्थन के बावजूद, भारतीय अपने विकल्प चुनने के अधिकार के बारे में सुरक्षात्मक हैं।
लेकिन, इसके प्रदाता के रूप में देखने के लिए विपक्षी दलों को मोदी और भाजपा से स्पष्ट रूप से अलग होना होगा। जैसे मोदी द्वारा पार्टी और देश की लोकतांत्रिक संस्कृति को नष्ट करने का कांग्रेस का आरोप तब कमजोर पड़ जाता है, जब पार्टी नेतृत्व (परिवार और उनके साथियों को पढ़ें) जी-23 के पत्र लेखकों को आंतरिक मामला मानता है।
अरविंद केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव और के चंद्रशेखर राव तक हर राजनीतिक दल के लिए यह सच है। यह आरोप कि मोदी तानाशाही शैली के हैं, तभी टिके रह सकते हैं जब विपक्षी नेता प्रधानमंत्री की धुंधली नकल भर न हों।
मोदी के नेतृत्व में भाजपा वह ‘अलग पार्टी’ नहीं है जिसका उसने वादा किया था। विपक्षी दलों को उस लेबल से ‘चोरी’ करनी होगी और एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना होगा, जिस तरह से भाजपा ने 1998 और 2004 के बीच किया था, जब सहयोगी भी अक्सर उस समय के पार्टी नेतृत्व पर नजर रखते थे। एक ‘निर्णायक’ नेता का मुकाबला करने के लिए किसी को ‘समायोज्य’ होना होगा- यानी उनकी विपरीत छवि वाला, न कि फोटोकॉपी।