गुजरात के "नो-रिपीट" सिद्धांत का बीजेपी शासित अन्य राज्यों के लिए मतलब समझिये - Vibes Of India

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गुजरात के “नो-रिपीट” सिद्धांत का बीजेपी शासित अन्य राज्यों के लिए मतलब समझिये

| Updated: September 17, 2021 19:54

गुजरात में मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में नई कैबिनेट का गठन दरअसल चुनाव से जुड़ा हुआ है। किसी पुराने को फिर मंत्री नहीं बनाने के मंत्र यानी “नो-रिपीट” सिद्धांत के तहत नितिन पटेल, प्रदीपसिंह जडेजा, भूपेंद्रसिंह चुडास्मा, कौशिक पटेल और सौरभ पटेल जैसे दिग्गजों तक का पत्ता साफ कर दिया गया है। जबकि  इनमें से कुछ 1995 में केशुभाई पटेल के समय से हर सरकार का हिस्सा रहे हैं।  ऐसा नये और युवा चेहरों के लिए रास्ता बनाने के नाम पर किया गया। कहना ही होगा कि बीजेपी ने इसके लिए सिद्धांत पिनराई विजयन के उदाहरण से लिया है। वह जब दोबारा केरल के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों को छोड़ देने का साहसिक कार्य किया। इनमें अंतरराष्ट्रीय हस्ती बन चुकीं केके शैलजा भी थीं, जिन्होंने निपाह और कोविड-19 वायरस से निपटने के सफल तौर-तरीके के कारण वैश्विक मीडिया का ध्यान आकर्षित किया था। इस तरह सीपीआई (एम) की तरह बीजेपी भी इस सिद्धांत पर काम करती है कि पार्टी, संगठन के आगे व्यक्ति मायने नहीं रखता है।

भाजपा की केंद्रीय नेतृत्व के लिए गुजरात मंत्रिपरिषद में भावशून्य  और कठोर बदलाव करना अपेक्षाकृत आसान था, क्योंकि राज्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का घर-आंगन है। यहां उनका अधिकार राज्य के नेताओं, सांसदों और विधायकों पर बिना किसी चुनौती के चलता है। हद तो यह कि पारंपरिक विश्वास और अपेक्षाओं के खिलाफ नितिन पटेल, जडेजा और चुडास्मा जैसे सीनियर तक ने कोई आवाज नहीं उठाई, जिन्हें नई कैबिनेट में जगह नहीं दी गई। सिद्धांत रूप में,  राजनीति में निहित स्वार्थों को ध्वस्त करने के लिए “नो-रिपीट” विचार को काम करना चाहिए,  जो सत्ता हासिल करने और उससे व्यक्तिगत लाभ उठाने में लगे होते हैं। लेकिन व्यवहार में यह जरूरी नहीं कि यह बीजेपी में भी काम करे। मोदी-पूर्व युग में, बुजुर्ग अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी अनिवार्य रूप से रूढ़िवादी थे और शायद ही कभी सत्ता संरचनाओं के साथ प्रयोग करते थे। लेकिन गुजरात एक अपवाद था, क्योंकि बीजेपी का एक वर्ग चाहता था कि केशुभाई पटेल को प्लान-बी तैयार किए बिना यानी उनका उत्तराधिकारी चुने बगैर ही हटा देना चाहिए। इससे गांधीनगर में बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली पहली सरकार अस्थिर हो गई थी। केंद्रीय नेतृत्व के रडार पर कर्नाटक दूसरा राज्य था, जहां पार्टी के पहले सीएम बीएस येदियुरप्पा को दिल्ली ने कभी भी स्वायत्तता से काम करने की अनुमति नहीं दी थी।

2017 में दिल्ली नगर निगम या एमसीडी चुनावों में "नो-रिपीट" प्रयोग को एक परीक्षण के रूप में आजमाया गया था। तीनों एमसीडी निकाय 10 साल तक भाजपा के अधीन रहे और भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अक्षमता के आरोपों के जाल में फंसे रहे। आम आदमी पार्टी ने 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी। इस पृष्ठभूमि में, भाजपा के लिए एमसीडी चुनावों में अपने प्रदर्शन को दोहराना लगभग असंभव लग रहा था। लेकिन उसने सभी मौजूदा महापौरों और पार्षदों को हटा दिया और विद्रोह के खतरे को झेलते हुए नए और युवा उम्मीदवारों को मैदान में उतार दिया। दिल्ली बीजेपी के तत्कालीन सांसद मनोज तिवारी ने सूरत के दर्शन जरदोश का उदाहरण दिया, जिन्हें इसी तरह स्थानीय निकाय चुनाव में टिकट देने से मना कर दिया गया था। बाद में उन्हें लोकसभा चुनाव में उतारा गया, जिसमें उन्होंने जीत हासिल की। भाजपा का तर्क था कि स्थानीय निकाय तो  नेताओं को तैयार करने के लिए नर्सरी थे। और इस तरह सीनियर नेताओं को दरवाजा दिखा दिया गया। हालांकि, प्रयोग सफल रहा और आप की शानदार शुरुआत के बावजूद भाजपा ने एमसीडी चुनावों में धमाकेदार वापसी कर ली।

कर्नाटक का उदाहरण लें। वहां भी बीजेपी ने सीएम येदियुरप्पा की जगह अपेक्षाकृत कम उम्र के बसवराज बोम्मई को लेकर आई। संयोग से बोम्मई 2008 में जनता दल से भाजपा में शामिल हुए थे। कर्नाटक की राजनीतिक गतिशीलता ने भाजपा या मोदी को गांधीनगर जैसे सुधार के लिए मौका नहीं दिया। वहां बीजेपी  सरकार दरअसल कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) या जद-एस के 17 दलबदलुओं की दया पर टिकी है। इनमें से कुछ येदियुरप्पा के कारण आए, लेकिन उनके जाने से उनमें से कोई भी बाहर नहीं निकला, क्योंकि उन्होंने सभी मंत्रालयों के लिए सौदेबाजी की थी। अंत में, बोम्मई ने अपने 29 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में पिछली सरकार के 23 मंत्रियों को बरकरार रखा। इनमें बी श्रीरामुलु (बेल्लारी खदानों के साथ पहचाने जाने वाले) और के सुधाकर जैसे विवादास्पद लोग भी थे। उन्होंने राजूगौड़ा, पूर्णिमा श्रीनिवास और सांसद रेणुकाचार्य के साथ-साथ डिप्टी सीएम लक्ष्मण सावदी जैसे प्रतिबद्ध येदियुरप्पा वफादारों को बाहर कर दिया, जिन्हें येदियुरप्पा ने विधानसभा में अपने फोन पर एक अश्लील क्लिप देखते हुए पकड़े जाने के बावजूद शामिल किया था। कांग्रेस-जद-एस के पाखंडी नेताओं में से 10 मंत्री बने। कर्नाटक की स्थिति  “नो-रिपीट” फॉर्मूले की कमियों को दर्शाती है। जाहिर है, अपनी इच्छा से इसे लागू करने के लिए एक पार्टी को असाधारण रूप से मजबूत होना होगा।

इसी तरह असम में भी, जहां इस बार बीजेपी चुनाव के बाद नए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के साथ लौटी। यहां तक कि कथित तौर पर उत्तर-पूर्व में किए गए सभी सर्वेक्षणों में आगे रहने वाले सरमा को अपना मंत्रिमंडल बनाते समय कई कारकों का ध्यान रखना पड़ा। वह 13 सदस्यीय मंत्रिमंडल में केवल छह नए चेहरे ला सके और पुरानी सर्बानंद सोनोवाल कैबिनेट से सात को बरकरार रखा। साथ ही असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी- लिबरल जैसे सहयोगियों को समायोजित करना था, इसके अलावा क्षेत्रीय समानता को बनाए रखना था। इन परिस्थितियों ने सरमा के हाथ बांध दिए।

जबकि एक अन्य चुनाव वाले राज्य उत्तराखंड के सीएम दो बार बदले गए। अब “नो-रिपीट” सिद्धांत की असली परीक्षा तब देखी जाएगी, जब उम्मीदवारों को चुना जाएगा। बीजेपी ने 2017 के चुनावों में 70 में से 57 सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन हाल ही में एक आंतरिक सर्वेक्षण से पता चला है कि कम से कम 20 विधायक अपने निर्वाचन क्षेत्रों में “अलोकप्रिय” हो चुके हैं और उन्हें बदला जा सकता है। इस भाजपा शासित राज्य के तीन मुख्यमंत्रियों के बनने और उन्हें हटाने के साथ ही यह स्पष्ट है कि किसी भी राज्य के नेता को उम्मीदवारों को नामित करने का अंतिम अधिकार नहीं दिया जाएगा। अंतिम अधिकार हर हाल में केंद्रीय नेतृत्व का होगा।

उत्तर प्रदेश का अलग ही खेल है। यदि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी मर्जी से सब कुछ तय कर सकते हैं, तो वे अधिकांश मौजूदा विधायकों को नहीं दोहराएंगे। उनके द्वारा उनका चयन नहीं किया गया, क्योंकि वह 2017 के चुनावों से पहले वह घोषित सीएम उम्मीदवार नहीं थे। तब से सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद मोदी या गृह मंत्री अमित शाह के लिए ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि वे उम्मीदवारों को चुनने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया में आदित्यनाथ के हस्तक्षेप को नजरअंदाज कर सकें। उनके पास अपने तंत्र हैं जो भाजपा संगठन के समानांतर चलते हैं। इसलिए यह संभावना है कि आदित्यनाथ से प्रतिस्पर्धा की स्थिति में, बीजेपी के कई मौजूदा विधायकों को फिर से मनोनीत नहीं किया जाए।

ऐसे में कहने-सुनने या लिखने-पढ़ने में ‘नो-रिपीट’ अच्छा लग सकता है; लेकिन व्यवहार में राजनीतिक आवश्यकताएं मोदी शासित बीजेपी में भी इसके महत्व को कम कर देती हैं।

Radhika Ramaseshan is a senior journalist based in New Delhi.

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