गुजरात चुनाव में सट्टा बाजार का दांव बीजेपी की जीत पर

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गुजरात चुनाव में सट्टा बाजार का दांव बीजेपी की जीत पर

| Updated: November 4, 2022 18:58

गुजरात में 1 और 5 दिसंबर को दो चरणों में होने वाले विधानसभा चुनावों में सट्टा बाजार यानी गैरकानूनी तरीके से दांव लगाने वाले (illegal betting mafia) भी एक्टिव हो गया है। उसके मुताबिक, लगभग दो दशकों में बीजेपी राज्य में सबसे अधिक सीटें हासिल कर सकती है। सट्टेबाजों को उम्मीद है कि सट्टा बाजार में कारोबार करीब 40,000-50,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा।

2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में वापस आने वाली बीजेपी ने तब 182 सीटों वाली विधानसभा में 127 सीटें जीती थीं। सटोरियों (bookies) के मुताबिक, इस बार पार्टी कम से कम 120 सीटें जीत सकती है।

इस तरह की बड़ी उम्मीदों के लिए प्रमुख कारण यह है कि पार्टी को 2017 के विपरीत पटेल समुदाय की ओर से किसी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा है। पिछले चुनाव में पटेल समुदाय के विरोध के कारण विधानसभा में बीजेपी की संख्या 99 तक गिर गई थी, जो 2002 के बाद से सबसे कम थी, क्योंकि वे पटेल रिजर्वेशन की मांग के साथ आंदोलन में कर रहे थे।

2017 के चुनावों के दौरान पटेल आंदोलन का चेहरा रहे हार्दिक पटेल इस साल जून में कांग्रेस पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। पटेल समुदाय राज्य की आबादी का 12-14 प्रतिशत है, और सट्टेबाजों का कहना है कि वे सामूहिक रूप से बीजेपी को वोट देंगे।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो पार्टी को एक प्रमुख रणनीतिकार और गांधी परिवार के लंबे समय से सहयोगी रहे अहमद पटेल की कमी खलेगी। उन्होंने  राज्य में काडर जुटाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। पटेल की 2020 में मृत्यु हो गई। सट्टा बाजार में कांग्रेस को इस बार 15 से 30 के बीच ही सीटें मिलने का अनुमान है। यानी 2017 की तुलना में उसे 77 सीटों तक का नुकसान हो सकता है। सट्टेबाजों ने कहा कि दरअसल आम आदमी पार्टी (AAP)  कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। वह कांग्रेस की 10-20 सीटें ले सकती है, क्योंकि राज्य में मजबूत नेतृत्व की कमी के कारण उनके अल्पसंख्यक वोट (minority vote) भी बंट सकते हैं।

इसी तरह के रुझान (trends) हिमाचल प्रदेश में भी दिखाई दे रहे हैं, जहां 12 नवंबर को चुनाव होने हैं। सट्टेबाजों ने कहा कि वहां भी बीजेपी के सत्ता में बने रहने की उम्मीद है और सत्ता विरोधी कारण (anti-incumbency factor) ज्यादा भूमिका नहीं निभा सकता है।

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