कांग्रेस का दावा है कि उसने पंजाब में पार्टी कार्यकर्ताओं और आम जनता की राय जानने के लिए सोशल मीडिया के 250 से अधिक योद्धाओं को तैनात किया है। वे यह बताएंगे कि क्या उसे वर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और राज्य पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू में से किसे अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश करना चाहिए। विधानसभा चुनाव 20 फरवरी को होने हैं।
कहना ही होगा कि निर्णय पूरी तरह से सर्वेक्षणों पर आधारित नहीं होगा। हालांकि आंतरिक सर्वे किसी पराजित और नाराज व्यक्ति को शांत करने के लिए उपयोगी साबित हो सकता है। फिर भी उस तरह की राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण संकेतक होगा, जिसे कांग्रेस आगे अपनाना चाहती है।
ऐसे समय में जब बूढ़ी होती पार्टी को गतिशील नए नेताओं और खुद को पुनर्जीवित करने के लिए एक नए दृष्टिकोण की सख्त जरूरत है, पंजाब में वह क्या करती है, इस पर पैनी नजर रखी जाएगी। सितंबर में कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के बाद सोनिया गांधी ने एक आश्चर्यजनक दलित चेहरा चन्नी को मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया था। तब उन्होंने तुरुप के पत्ता निकाला था। लेकिन सिद्धू, जिस व्यक्ति ने अमरिंदर के खिलाफ बगावत का नेतृत्व किया था, उसे पार्टी के राज्य अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था।
हार न मानने वाले चन्नी का सामना करने के बाद भी सिद्धू ने यह सुनिश्चित कर लिया है कि वह अभी भी ख्याति प्राप्त कर रहे हैं।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह राज्य की कांग्रेस में ज्यादातर लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं हैं, क्योंकि सभी शीर्ष नेता उन्हें लगातार निशाना बना रहे हैं। लेकिन कुछ लोग इस बात से इनकार कर सकते हैं कि पिछले कुछ महीनों में वह आम आदमी पार्टी (आप) को भी निशाने पर ले लेने वाले व्यक्ति के तौर पर उभरे उभरे हैं, जो अपने ‘बदलाव’ के मुद्दे को समर्थन हासिल कर रही थी। इस मामले में सिद्धू ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस के प्रतिनिधि चेहरे के तौर पर खुद को खड़ा कर लिया।
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13 सूत्री ‘पंजाब मॉडल ऑफ गवर्नेंस’ को लोगों तक ले जाकर सिद्धू ने पार्टी के प्रस्तावित चुनावी घोषणापत्र को वस्तुतः हाईजैक कर लिया है। वह उत्साह से बताते हैं कि कैसे वह शासन के मौजूदा तरीकों में भारी बदलाव लाने का इरादा रखते हैं। रेत खनन और शराब लाइसेंस में रुचि रखने वाले पुराने नेता, यहां तक कि अपनी पार्टी के भीतर भी उनके निशाने पर हैं।
सितंबर में पीसीसी अध्यक्ष बनाए जाने के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अचानक इस्तीफा दे दिया था। तब चन्नी के नेतृत्व में नई कैबिनेट का गठन किया गया था। उनके सहयोगियों ने बताया कि उनका इस्तीफा मुख्य रूप से कैबिनेट में दागी राणा गुरजीत सिंह की बहाली का विरोध दर्ज करने के लिए था। राणा दरअसल अमरिंदर सरकार में बिजली और सिंचाई मंत्री थे। उन्होंने अपने स्टाफ के सदस्यों के नाम पर करोड़ों के बालू खनन का ठेका लेने के आरोपों का सामना करने के बाद 2018 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। वह आज चन्नी सरकार में तकनीकी शिक्षा मंत्री हैं।
जब सिद्धू मुख्यमंत्री चन्नी समेत अपनी ही पार्टी के सदस्यों पर निशाना साधते हैं, तो वह अपने बारीकी से इशारा कर रहे होते हैं कि चन्नी लोकलुभावन राजनीति करने के पुराने तरीके वाले नेता हैं। ऐसे में यदि कोई वास्तविक परिवर्तन का प्रतीक है, तो वह सिद्धू ही हैं। उनकी मीडिया से बातचीत में ऐसे उदाहरणों की भरमार है कि कैसे मंत्रियों और विधायकों ने शराब, बालू और परिवहन लाइसेंसों पर कब्जा कर लिया था और कैसे पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने उन्हें पकड़ने के उनके प्रयासों को रोक दिया था।
जब से प्रवर्तन निदेशालय ने उनके भतीजे भूपिंदर सिंह पर छापा मारा और 10 करोड़ रुपये की बेहिसाबी नकदी, सोना और अन्य कीमती सामान के अलावा व्यापक संपत्तियों से संबंधित दस्तावेजों को बरामद किया, तब से चन्नी खुद संदिग्ध हो गए हैं। ऐसे में सिद्धू जोर-शोर से खुद को एक ईमानदार राजनेता, एक मजबूत नेता के रूप में बता रहे हैं। स्वच्छ राजनीति के पैरोकार, जो पंजाब में बालू खनन, केबल और शराब माफियाओं को कुचलने के अलावा इन संसाधनों से राज्य के लिए पैसा जुटाने की इच्छाशक्ति रखते हैं।
जैसे ही चन्नी के भतीजे से बरामद धन के ढेर के दृश्य सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगे, सिद्धू ने चुपचाप खुद को कांग्रेस के ‘मिस्टर क्लीन’ के रूप में पेश करने का समय नहीं गंवाया। मुख्यमंत्री के भतीजे के खिलाफ छापेमारी पर अपनी चुप्पी के बारे में पूछे जाने पर सिद्धू ने पार्टी लाइन का पालन किया और छापे के समय के बारे में बात की और कहा कि वे कैसे राजनीति से प्रेरित हैं। लेकिन अगली सांस में उन्होंने बालू खनन में मंत्रियों की संलिप्तता पर जमकर बरसे। उन्होंने पूछा, “जिन लोगों के पास एल-1 और एल-2 शराब के लाइसेंस हैं या जिनके पास बालू खड्डों का ठेका है, वे राज्य पर शासन कैसे कर सकते हैं?” और फिर, “कोई भी सिद्धू पर उंगली नहीं उठा सकता और न ही कह सकता है कि वह भ्रष्ट है और उनके अवैध व्यवसाय हैं।”
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उनके सहयोगियों का दावा है कि उन्हें अंदर से चीजों को साफ करने के लिए पंजाब कांग्रेस में छोड़ दिया गया है। इसका मतलब केवल यह हो सकता है कि वे जो कुछ करते हैं उन्हें कांग्रेस आलाकमान, विशेष रूप से राहुल गांधी की मंजूरी है।
फिर भी, मुख्यमंत्री चन्नी रेटिंग के खेल में काफी आगे दिखाई देते हैं। राहुल गांधी के सहयोगी निखिल अल्वा के एक अनौपचारिक ट्विटर पोल से पता चला कि 68.7% मतदाता चाहते हैं कि चन्नी कांग्रेस का मुख्यमंत्री चेहरा बनें। निर्णय राज्य कांग्रेस के लिए छोड़ देने पर वे भी चन्नी को ही पसंद करेंगे। राणा गुरजीत सिंह, कैबिनेट मंत्री तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा और ब्रह्म मोहिंद्रा सहित कई कांग्रेस नेताओं ने खुले तौर पर चन्नी को समर्थन दे रखा है।
इसमें आबादी का लगभग 33% दलित वोट निर्णायक साबित हो सकता है, जिसे चन्नी ने कांग्रेस की झोली में लाने का वादा किया है। पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में चन्नी में पंजाब के खंडित दलित मतदाताओं में से अधिकांश को एकजुट करने की क्षमता है, जो वहां एकजुट होने के लिए उत्साहित हैं। अब तक पंजाब में दलित वोट आमतौर पर कांग्रेस, आप और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के बीच बंटे हुए थे।
पार्टी इस तथ्य से अवगत है कि दलितों के बीच फैली इस धारणा का मुकाबला करना महत्वपूर्ण है कि चन्नी की नियुक्ति केवल कामचलाऊ है और अगर कांग्रेस चुनाव जीतती है तो पार्टी किसी और को मुख्यमंत्री बना सकती है। बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन करने वाली पार्टी अकाली दल पहले ही घोषणा कर चुकी है कि सत्ता में आने पर उसका उपमुख्यमंत्री दलित होगा।
चन्नी की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता ‘आम आदमी’ या ‘साधारण आदमी’ के रूप में है, जो आप के अरविंद केजरीवाल से भी अधिक सामान्य है। वह अपने पिता के टेंट हाउस व्यवसाय के बारे में पत्रकारों को यह बताने में कभी नहीं चूकते कि कैसे वह युवावस्था में शादी की पार्टियों में मेज और कुर्सियां बिछाते थे। वह उत्सुक भीड़ में चलते हैं, मृदुभाषी हैं, लेकिन सिद्धू के विपरीत व्यवस्था को खत्म करने या माफियाओं को तोड़ने की बात नहीं करते हैं। चन्नी भले ही अब एक दागी नेता हो गए हैं, लेकिन लोगों से जुड़ने के उनके जमीनी तरीके पर कांग्रेस पार्टी में सबकी नजर है ।
चुनाव की पूर्व संध्या पर कीचड़ उछालने का असर सिद्धू पर भी पड़ा है। अलग रह रही सौतेली बहन सुमन तूर ने यह आरोप लगाया है कि सिद्धू ने अपने पिता की मृत्यु के बाद 1986 में मां को घर से बाहर निकाल दिया था। सुमन के अनुसार, 1989 में सिद्धू की मां की एक रेलवे स्टेशन पर लावारिस हालत में मौत हो गई थी। उनके समर्थकों का कहना है कि उनके विरोधियों को जब उनमें वित्तीय गड़बड़ी का एक भी उदाहरण नहीं मिला, तो नीचा दिखाने के लिए उनके पारिवारिक संघर्ष को हथियार बना लिया।
यह एक कठिन विकल्प है, लेकिन यह उस तरह की राजनीति का संकेत देता है जिसकी कल्पना कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व पंजाब और देश में कहीं और करता है। क्या यह दलित को मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करने वाली पहली पार्टी होने का लाभ छीन लेगा, या पार्टी सिद्धू के साथ जाएगी, जो संरक्षण के मौजूदा ढांचे को ध्वस्त करने का वादा करते हैं?