20 साल बाद भी मोदी ही खींच रहे हैं बीजेपी का रथ - Vibes Of India

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20 साल बाद भी मोदी ही खींच रहे हैं बीजेपी का रथ

| Updated: October 16, 2021 12:19

वह 7 अक्टूबर, 2001 का दिन था। उस दिन ही नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। तब उनकी प्रसिद्ध घोषणा थी: “मैं यहां एक दिवसीय मैच खेलने के लिए हूं।” तब उनके कंधे पर 1995 में अपने बूते राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने के छह साल के भीतर ही लड़खड़ा रही पार्टी को पटरी पर लाने का कठिन काम था। इस तरह यह कैडर-आधारित अनुशासित पार्टी की परंपरा को नष्ट कर चुका था। इसलिए  जब एक पत्रकार ने उनकी पहली प्रेस कांफ्रेंस में उनसे उनके एजेंडे के बारे में पूछा, तो मोदी ने एक अखबार की हेडलाइन का हवाला दिया: “मोदी टायरों पर रथयात्रा।”

बीस साल बाद मोदी खुद गेंदबाज, बल्लेबाज और अंपायरों की तीनों भूमिकाएं निभाते हुए एक अंतहीन टेस्ट मैच खेल रहे हैं। इसमें रत्ती भर भी फर्क नहीं आया है। वह 7 अक्टूबर, 2021 को भी वही आदमी हैं, जैसा 7 अक्टूबर 2001 को थे। फर्क केवल यह आया है  कि वह अजेय मुख्यमंत्री से अजेय प्रधानमंत्री बन गए हैं। वह अपनी शैली को गुजरात मॉडल कहने में कम से कम एक बार उदारता जरूर दिखाते हैं। हालांकि, असल में यह मोदी मॉडल है।

उन्होंने गुजरात में ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अगर आप उन्हें हटाते हैं, तो पार्टी ढह जाती है। इस क्रम में पहले मोदी हैं, फिर बीजेपी। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो आज हालात अलग नहीं हैं। अगर वह अचानक गुजरात के मुख्यमंत्री और उनकी पूरी टीम को बिना किसी से सवाल किए हटा सकते हैं, तो वह अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल के साथ भी ऐसा कर सकते हैं। अगर 2014 में मोदी के दिल्ली चले जाने से लेकर सितंबर 2021 तक गुजरात में तीन मुख्यमंत्री देखे गए, तो उत्तराखंड को 4 साल से भी कम समय में इतने मुख्यमंत्री मिले।

नरेंद्र मोदी 7 अक्टूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए

यहां तक कि गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में मोदी की राजनीति और शासन की शैली पर सरसरी निगाह भी उनके प्रधानमंत्रित्व काल का आईना है।
पहले बीजेपी की बात। 2002 से गुजरात में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी ने भाजपा को बेलगाम सत्ता की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की बात की और सबसे पुरानी पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद माफी मांगते हुए 44 सीटों पर खड़ी हो गई- ऐसी संख्या जो उसे  सम्मानजनक नेता प्रतिपक्ष का पद देने के लिए पर्याप्त नहीं थी। जिन राज्यों में बीजेपी की हार हुई, वहां की सत्ता छीन ली गई। अगर गुजरात जैसी जगहों पर भी उसे जरा-सा खतरा नजर आया,  दर्जनों विधायक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए।
वह 2002 में गुजरात में एक कठोर सांप्रदायिक अभियान के बल पर सत्ता में आए, जहां “मियां मुशर्रफ” का अर्थ सामान्य रूप से मुस्लिम और “जेम्स माइकल लिंगदोह (पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त)” का अर्थ ईसाई अल्पसंख्यक था- यानी कांग्रेस समर्थक- और मुस्लिम समर्थक। लोगों और मीडिया को जेएम लिंगदोह का पूरा नाम तब पता चला, जब मोदी के चुनाव अभियान ने उन्हें निशाना बनाया, क्योंकि उन्होंने राज्य में जल्दी चुनाव नहीं होने दिया।

एक ओर उनकी सरकार पर गोधरा के बाद के दंगों के मद्देनजर राज्य प्रायोजित हिंसा का आरोप लगाया जा रहा था, तो दूसरी  उन्होंने अप्रैल में शुरू हुआ सबसे लंबा चुनाव अभियान चलाया, जब तक कि वह दिसंबर 2002 में सत्ता में नहीं आ गए। दुनिया भर में कटु आलोचना के बावजूद अपनी सरकार को गुजरात का गौरव करार दिया। इस तरह मोदी ने दिग्गज का दर्जा हासिल कर लिया। लोगों ने उनका समर्थन किया और वह तुरंत उनके दिलों में उतर गए- चाहे इसे पसंद करें या नहीं।

वह किंवदंती बन गए हैं। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उनके पूरे मंत्रिमंडल को सितंबर में बदलने या इससे पहले रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर जैसे वरिष्ठ और सक्षम मंत्रियों को केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर करना दरअसल उनका ऐसा प्रयोग था, जिसे उन्होंने पहली बार तब किया था जब वह मुख्यमंत्री थे। मोदी ने सभी छह नगर निगमों (बाद में आठ) में तबके मौजूदा नगर पार्षदों को हटा दिया था, जिसके बाद नए चेहरों की शानदार जीत के लिए अकेले प्रचार किया था। जब उन्होंने 2019 में विभिन्न राज्यों में चुनावी रैलियों में नाटकीय रूप से दोहराया, “आपका एक-एक-एक वोट नरेंद्र मोदी के खाते में जाएगा”,  तो यह भी दरअसल गुजरात में पहले ही जांचा-परखा जा चुका था।

अगला कौन?
लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। उनके द्वारा बनाए गए व्यक्तित्व आधारित मार्ग ने न केवल पार्टी को बौना बना दिया है बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि राज्यों में नेतृत्व का कोई दूसरी कतार विकसित न हो। फिर से गुजरात इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। गुजरात में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल, जो 1998 में मोदी के गुजरात से अलग हो जाने के बाद सबसे कड़े प्रतिद्वंद्वी बन गए, अक्टूबर 2001 में मोदी के सत्ता संभालने के बाद लगभग राजनीतिक रूप से खत्म ही हो गए।
पटेल ने बाद में पाटीदार समुदाय के प्रभुत्व वाली एक अलग पार्टी बनाने की कोशिश की थी, जो 2007 के चुनावों में विफल रही। पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी का बाद में भाजपा में विलय हो गया,  और उसके सबसे मुखर नेता गोरधन झड़फिया तो बाद में वाराणसी और उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी के सहायक ही बनए गए।

जय नारायण व्यास, जो मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ कानूनी और राजनीतिक लड़ाई में सबसे आगे थे और महत्वाकांक्षी सरदार सरोवर परियोजना मामले में चर्चित हुए थे, उन्हें चुनावी टिकट दिया गया था, लेकिन उनकी संभावनाओं को कथित तौर पर भीतर से खत्म कर दिया गया। आज व्यास को न तो किसी महत्वपूर्ण पार्टी बैठक में बुलाया जाता है और न ही किसी निर्णय में शामिल किया जाता है। पुराने अहमदाबाद में पार्टी के वरिष्ठ नेता और चेहरा अशोक भट्ट को साल में केवल दो बार बैठने वाली विधानसभा का स्पीकर बना दिया गया। और तो और, दिवंगत हरेन पंड्या को दिसंबर 2002 के चुनावों में टिकट से वंचित कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने मोदी के लिए अहमदाबाद में अपनी एलिस ब्रिज सीट खाली करने से इंकार कर दिया था।

आज गुजरात के पास मोदी का विकल्प नहीं है और उनके गृह राज्य के मुख्यमंत्रियों को आसानी से रबर स्टैंप कहा जाता है, और उनमें से कोई भी इस पर ध्यान नहीं देता। रूपाणी, उनके तत्कालीन डिप्टी नितिन पटेल, जो लंबे अनुभव के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बन पाए, और हटा दिए गए सभी वरिष्ठ मंत्री तक कुछ नहीं कर सकते हैं। रूपाणी को तब हटा दिया गया, जब उनके नेतृत्व में भाजपा ने 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों से एक साल पहले फरवरी में स्थानीय निकाय चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया था।

यहीं पर मोदी आते हैं। उन्होंने पहले दिन से ही समझ लिया था कि वह और उनका शासन एक प्रभावी राज्य मशीनरी चलाने के नट और बोल्ट से अधिक धारणा हैं। यही कारण है कि 2002 में उनके सत्ता में आने के एक साल के भीतर ही वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन किया गया, ताकि “मीडिया और विपक्षी दलों द्वारा बनाई गई छवि” को तोड़ते हुए यह दिखाया जा सके कि उनके अधीन, आधुनिक दृष्टिकोण के साथ गुजरात एक आदर्श निवेश गंतव्य बना हुआ है। अरुण शौरी जैसे विद्वान नेता और हर रंग के पत्रकार भी इसकी चकाचौंध में आ गए थे। इस तरह नए विकास एजेंडे के साथ दूरदर्शी नेता के रूप में हिंदुत्व के नए प्रतीक बनने में कतई समय नहीं लगाया। उन्होंने हिंदुत्व और विकास को आलंकरिक भाषा में जिस तरह एक-दूसरे का विकल्प बना दिया, जो वह अब भी करते हैं,  कि वे समानार्थक लगने लगे हैं।

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