प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति (CCPA) ने आगामी जनगणना में जातियों की गणना को मंजूरी दे दी है। यह फैसला एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत है, जो दशकों पुरानी मांग को पूरा करता है और सरकार के पूर्व में संसद में घोषित रुख से भी एक बड़ा यू-टर्न है।
बुधवार को इस निर्णय की घोषणा करते हुए केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा, “जाति जनगणना हमारे समाज की सामाजिक और आर्थिक संरचना को मज़बूत करेगी, जबकि देश विकास की ओर बढ़ता रहेगा।”
जाति जनगणना की पुरानी मांग
1951 से अब तक की जनगणनाओं में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) तथा धार्मिक समुदायों के आंकड़े तो शामिल किए जाते रहे हैं, लेकिन अन्य जातियों की गणना नहीं की गई है।
1931 की जनगणना जाति आधारित आखिरी सार्वजनिक आंकड़ा था। 1941 में जातिगत आंकड़े तो एकत्र किए गए थे, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उन्हें कभी प्रकाशित नहीं किया गया।
स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना से पहले ही सरकार ने जाति पर सवाल न पूछने का फैसला किया था। हालांकि, ओबीसी आधारित पार्टियों ने लगातार जाति जनगणना की मांग उठाई। फिर भी, अब तक किसी भी केंद्र सरकार ने पूर्ण जातिगत गणना नहीं करवाई थी।
जनगणना से SECC तक: अधूरा प्रयास
2010 में, तत्कालीन कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से आग्रह किया था कि 2011 की जनगणना में जाति/समुदाय का डेटा भी एकत्र किया जाए।
हालांकि रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (RGI) ने इसे तकनीकी कारणों से अस्वीकार कर दिया। गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने संसद में कहा था कि जाति आधारित गणना में “लॉजिस्टिक और व्यावहारिक कठिनाइयाँ” हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जनगणना पर्यवेक्षकों का काम उत्तरदाता से जवाब लेकर रिकॉर्ड करना है—वे जांचकर्ता नहीं होते।
बाद में, सहयोगी दलों के दबाव में केंद्र सरकार ने एक अलग सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) का रास्ता अपनाया, जिसे जून 2011 से सितंबर 2011 के बीच संपन्न किया गया।
करीब ₹4,900 करोड़ की लागत से हुई इस जनगणना में सामाजिक-आर्थिक आंकड़े 2016 में जारी किए गए, लेकिन जातिगत आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए। ये आंकड़े सामाजिक न्याय मंत्रालय को सौंपे गए, जिसने नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगड़िया की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति बनाई। लेकिन आज तक यह डेटा सार्वजनिक नहीं हुआ।
2024 से पहले बढ़ा दबाव
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जाति जनगणना की मांग तेज़ हो गई। लगभग सभी विपक्षी दल इसके समर्थन में आ गए। बिहार में भाजपा ने भी नीतीश कुमार सरकार द्वारा करवाई गई जातिगत सर्वेक्षण का समर्थन किया।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सरकार के शीर्ष पदों में ओबीसी प्रतिनिधित्व की कमी का मुद्दा जोरशोर से उठाया। कांग्रेस ने 2019 की तुलना में 2024 में अपनी सीटें लगभग दोगुनी कर लीं, वहीं भाजपा को पूर्ण बहुमत गंवाना पड़ा।
कुछ राज्य सरकारों ने “कोटे के भीतर कोटा” लागू करने का प्रयास किया, जिससे जातियों के भीतर भी उपवर्गीकरण की मांग बढ़ गई।
नीति में बड़ा बदलाव
हालांकि 20 जुलाई 2021 को केंद्र सरकार ने संसद में स्पष्ट किया था कि SC और ST के अलावा किसी अन्य जाति की गणना “नीति के तहत” नहीं की जाएगी। NCBC ने भी 2021 में सरकार से OBC जनसंख्या के आंकड़े जुटाने की अपील की थी।
अब, कैबिनेट के इस ताजा फैसले के साथ केंद्र सरकार ने अपने ही पुराने रुख को पलट दिया है।
आगे क्या होगा?
2021 की जनगणना कोविड-19 महामारी के कारण स्थगित हो गई थी और अभी तक शुरू नहीं हुई है। हाल ही में सरकार ने रजिस्ट्रार जनरल मृत्तुंजय कुमार नारायण का कार्यकाल अगस्त 2026 तक बढ़ा दिया है, जिससे संकेत मिलता है कि सरकार जनगणना की तैयारी में है।
जनगणना के दो प्रमुख चरण होते हैं:
- गृह-सूचीकरण एवं आवास जनगणना
- जनसंख्या गणना
इस बार की जनगणना कई नीतिगत फैसलों और राजनीतिक परिसीमन को प्रभावित करेगी। लोकसभा और विधानसभा सीटों के परिसीमन को 1971 से रोका गया है, और संविधान के अनुसार अगला परिसीमन 2026 के बाद की पहली जनगणना के आधार पर होना है।
महिलाओं के लिए घोषित 33% आरक्षण विधेयक भी जनगणना और परिसीमन पर निर्भर करता है।
जाति जनगणना से ओबीसी में उपवर्गीकरण और आरक्षण बढ़ाने की मांग को नया बल मिलने की संभावना है—जो भारत की सामाजिक न्याय की राजनीति को गहराई से प्रभावित कर सकती है।
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