कनाडा – दुनिया की सात सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं के समूह G-7 की स्थापना के 50वें वर्ष में यह उम्मीद की जा रही थी कि यह मंच वैश्विक संघर्षों को संभालने में एकजुट और प्रभावशाली नजर आएगा। लेकिन कनाडा के कनानास्किस में आयोजित शिखर सम्मेलन और आउटरीच सत्र में G-7 एक बिखरा हुआ और प्रभावहीन मंच बनकर उभरा।
रूस-यूक्रेन युद्ध, ईरान-इज़राइल तनाव और गाज़ा पर इज़राइल की लगातार बमबारी जैसे गंभीर संकटों के बीच यह समूह किसी ठोस साझा रुख पर नहीं पहुंच सका। इसके अलावा, वैश्विक व्यापार में सबसे बड़े विघ्न – अमेरिका के ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए पलटवार शुल्कों – पर भी कोई समाधान नहीं निकल सका।
अस्थिर शुरुआत और ट्रंप की असंगत नीतियाँ
इस वर्ष का सम्मेलन शुरू से ही संकटों से घिरा रहा। कनाडा में अचानक हुए आम चुनावों के कारण प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की नई सरकार आयोजन से कुछ समय पहले ही सत्ता में आई थी। इससे कई नेताओं, जैसे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, को शिखर सम्मेलन में शामिल होने का निमंत्रण बहुत देर से भेजा गया।
इस बीच, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की असंगत विदेश और व्यापार नीतियों ने भी G-7 में असहजता बढ़ा दी। ट्रंप का यूक्रेन संकट पर रूस के प्रति झुकाव और चीन को लेकर अस्पष्ट रवैया विशेष रूप से चर्चा में रहा। सम्मेलन के दौरान ट्रंप ने G-7 को “G-9” में बदलने का सुझाव भी दे डाला — जिसमें रूस और चीन को भी शामिल करने की बात कही गई — जिससे यूक्रेन के राष्ट्रपति समेत अन्य नेताओं में नाराजगी देखी गई।
शांति के पक्षधर राष्ट्रपति होने का दावा करने वाले ट्रंप का इज़राइल की सैन्य कार्रवाइयों को समर्थन देना एक और बड़ा मोड़ रहा। अमेरिका ने G-7 के उस मसौदा बयान पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया, जिसमें गाज़ा में शांति की अपील की गई थी और इज़राइल की आलोचना की गई थी। इसके बजाय अमेरिका ने ईरान की निंदा वाला बयान जारी करने पर जोर दिया।
ट्रंप का सम्मेलन से समय से पहले बाहर निकलना भी G-7 की असंगति को और गहरा गया। अंततः, सम्मेलन किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर साझा बयान जारी नहीं कर सका। इसके बजाय, एक ‘चेयर का सारांश’ (Chair’s Summary) जारी किया गया, जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता, क्वांटम कंप्यूटिंग, खनिज आपूर्ति शृंखला, जंगलों में आग की रोकथाम और ट्रांसनेशनल दमन जैसे अपेक्षाकृत कम विवादास्पद विषयों पर चर्चा की गई — लेकिन भारत की अपेक्षा के बावजूद आतंकवाद पर कोई उल्लेख नहीं किया गया।
भारत-कनाडा संबंधों में नरमी
प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा का शायद सबसे सकारात्मक पहलू कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी से उनकी मुलाकात रही। दोनों देशों ने अपने उच्चायुक्तों को बहाल करने और खालिस्तानी चरमपंथी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद बिगड़े संबंधों को सुधारने पर सहमति जताई।
हालांकि, कार्नी सरकार ने अभी तक इस मामले या खालिस्तानी चरमपंथ के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई की मंशा नहीं जताई है। G-7 द्वारा जारी ‘ट्रांसनेशनल रेप्रेशन’ (TNR) पर बयान में किसी देश का नाम नहीं लिया गया, लेकिन इसमें कनाडा द्वारा भारत, चीन, रूस और ईरान के खिलाफ लगाए गए विदेशी हस्तक्षेप के आरोपों की झलक साफ देखी गई।
भारत की भागीदारी पर पुनर्विचार की जरूरत
G-7 के इस बंटे हुए स्वरूप और सीमित परिणामों को देखते हुए भारत को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। प्रधानमंत्री द्वारा 11,000 किलोमीटर की यात्रा कर केवल एक आउटरीच सत्र में हिस्सा लेना क्या देश के संसाधनों का प्रभावी उपयोग है — यह सवाल उठता है।
विश्व व्यवस्था के बहुध्रुवीय और जटिल होते जाने के बीच, भारत को उन मंचों को प्राथमिकता देनी चाहिए जहां से उसे स्पष्ट कूटनीतिक या आर्थिक लाभ मिलें।
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