भारतीय उपमहाद्वीप में नालंदा और तक्षशिला प्राचीन विश्वविद्यालयों के पर्यायवाची हैं। लेकिन, गुजरात में भी उस युग में सीखने की एक जगह थी। वह थी, भावनगर के पास स्थित वल्लभी विद्यापीठ।
माना जाता है कि वल्लभी विद्यापीठ की प्रसिद्धि 600 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक रही, जो गुजरात के तटों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि दूर-दूर तक फैली हुई थी।
गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में मैत्रक वंश के दौरान वल्लभी राजधानी शहर था। वल्लभी विद्यापीठ दरअसल बौद्ध धर्म की शाखा हीनयान का स्कूल थी, जिसकी अकादमिक उत्कृष्टता विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के बराबर थी।
हालांकि, वल्लभी विद्यापीठ के बारे में एक दिलचस्प पहलू यह था कि बौद्ध धर्म के हीनयान स्कूल का केंद्र होने के बावजूद, यह वैदिक प्रथाओं और ब्राह्मणवाद के बारे में ज्ञान प्रदान करती थी। ऐसा कहा जाता है कि उत्तर भारत में गंगा के तट से युवा ब्राह्मण छात्र वैदिक प्रथाओं और अनुष्ठानों का अध्ययन करने के लिए वल्लभी की यात्रा किया करते थे।
वल्लभी विद्यापीठ अन्य क्षेत्रों में अपनी शिक्षाओं के लिए भी प्रसिद्ध थी। जैसे-राजनीति विज्ञान, खेती और व्यापार, लोक प्रशासन, धर्म और कानून, वास्तुकला विज्ञान, तत्वमीमांसा, चिकित्सा, तर्क-वितर्क, अर्थशास्त्र और अकाउंट आदि।
आधुनिक विश्वविद्यालयों की तरह वल्लभी विद्यापीठ में भी एक तरह की प्रवेश परीक्षा थी। फेल होने का मतलब था कि छात्र को गेट से लौटना पड़ेगा और विद्यापीठ में प्रवेश भी नहीं करने दिया जाता था। कैंपस प्लेसमेंट की तरह ही वल्लभी विद्यापीठ के छात्र शिक्षा पूरी करने के बाद उन सभी राजाओं और राज्यों के प्रशासन में शामिल हो जाते थे, जो विभिन्न रूपों में विद्यापीठ का समर्थन किया करते थे।
विद्यापीठ ने 7वीं शताब्दी के मध्य में सीखने के लिए 6000 छात्रों को उनके आवास के लिए बनाए गए सौ से अधिक विहारों में स्वागत किया। विहार दरअसल विश्वविद्यालय का एक लघु रूप था, जो अपने छात्रों को ज्ञान उसी तरह प्रदान करता था, जैसे आधुनिक समय में विश्वविद्यालय प्रशासन के तहत कॉलेज करते हैं।
अधिकांश पाठ्यक्रमों या विषयों की अवधि लगभग 10 वर्षों तक चलती थी और प्रत्येक पांच छात्रों पर एक पंडित या शिक्षक होते थे। इस विश्वविद्यालय की एक और विशेषता सभी को समान मानने का दर्शन था। यानी एक राजा और एक गरीब आदमी का बेटा बिना किसी शुल्क के एक ही कक्षा में साथ बैठकर पढ़ता था।
विद्यापीठ में प्रवेश करते ही प्रत्येक छात्र को यूनिफार्म पहननी पड़ती थी, चाहे उनकी सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। प्राथमिक स्तर को निस्या के रूप में जाना जाता था, जो 10 वर्षों की अवधि के लिए था, और प्रत्येक छात्र को अपने मार्गदर्शक के रूप में एक बौद्ध भिक्षु चुनने की अनुमति थी। फिर छात्र को स्थवीर के रूप में पदोन्नत किया जाता था, जहां वह इससे आगे बढ़ने के लिए एक विषय चुनता था और महारत हासिल कर उपाध्याय कहलाता था। इसके बाद आने वाले नए छात्रों को ज्ञान प्रदान करने के लिए उन्हें विश्वविद्यालय से जोड़ा दिया जाता था।
प्रसिद्ध कवि सोमदेव की रचना कथासरितसागर में वल्लभी विद्यापीठ के नाम और प्रसिद्धि का वर्णन है। कहा जाता है कि जब उनके बच्चों के लिए सीखने और ज्ञान को आत्मसात करने का समय होता था, तब ब्राह्मणों ने अक्सर नालंदा या बनारस के बजाय वल्लभी विद्यापीठ को चुना।
गुणमत्ति और स्थिरमत्ति जैसे प्रसिद्ध पंडितों ने वल्लभी विद्यापीठ में पढ़ाया। इन दोनों पंडितों के गुरु वसुबंधु नालंदा विश्वविद्यालय से थे। अक्सर यह कहा जाता था कि वल्लभी विद्यापीठ के छात्रों को प्राचीन वेदों और शास्त्रों से संबंधित महत्वपूर्ण बहसों और चर्चाओं में भाग लेने के लिए भेजा जाता था।
वल्लभी एक महत्वपूर्ण बंदरगाह थी, जो व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में फली-फूली। मैत्रक वंश के राजा और स्थानीय व्यापारियों ने अक्सर पुस्तकालयों और अन्य संसाधनों के लिए विद्यापीठ को भारी मात्रा में दान दिया। लेकिन इस परोपकार का एक कारण और भी था। बौद्ध धर्म को सम्राट अशोक के अधीन शाही संरक्षण प्राप्त हुआ और ब्राह्मणों द्वारा बाधाएं खड़ी करने की कोशिशों के बावजूद बौद्ध धर्म दूर-दूर तक फैलता गया।
यह भी माना जाता है कि मैत्रक वंश के अधिकांश ने बौद्ध धर्म का पालन किया। जो लोग जन्म से ब्राह्मण थे उन्होंने भी बौद्ध धर्म अपना लिया और विहारों, चैत्य, मठ और विद्यापीठों का सम्मान किया। फिर विश्वविद्यालय में उदारतापूर्वक योगदान भी दिया।
775 ई. में अरबों द्वारा मैत्रक वंश पर आक्रमण के बाद वल्लभी विद्यापीठ का पतन हो गया। वैसे लूट के बावजूद वल्लभी विद्यापीठ 12वीं शताब्दी तक चलती रही। लेकिन धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ वह अपनी चमक और प्रासंगिकता खोती चली गई।
वर्ष 2017 में वडोदरा में आयोजित दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन ने वल्लभी विद्यापीठ को पुनर्जीवित करने की अपील की। संघकाया नामक संगठन की ओर से एक प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया था, जिसे केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने मंजूरी दे दी है।
अब वल्लभी विद्यापीठ का भविष्य इसके भव्य इतिहास से मेल खा पाएगा या नहीं, यह तो समय ही बताएगा।