21 दिसंबर को Scroll ने रिपोर्ट दी थी कि चुनाव आयोग द्वारा Conduct of Election Rules, 1961 में संशोधन किया गया है, जिससे चुनाव से संबंधित कई दस्तावेजों को अब जनता नहीं देख सकेगी। विपक्षी दलों ने इस कदम को चुनावी पारदर्शिता पर हमला बताया।
अब Scroll द्वारा प्राप्त दस्तावेज़ों से खुलासा हुआ है कि यह संशोधन असाधारण तेज़ी से किया गया — महज़ दो दिनों में प्रस्ताव, संशोधन, अनुमोदन और अधिसूचना जारी कर दी गई, जबकि कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने इस प्रस्तावित संशोधन पर शुरू में आपत्ति जताई थी।
48 घंटे में कैसे हुआ पूरा मामला
- 17 दिसंबर: चुनाव आयोग ने नियम 93 में संशोधन का प्रस्ताव कानून मंत्रालय को भेजा।
- 19 दिसंबर: मंत्रालय को पत्र प्राप्त हुआ।
- 20 दिसंबर: मंत्रालय और आयोग के अधिकारियों के बीच बैठक हुई, ड्राफ्ट में बदलाव किए गए और इसे कानून मंत्री व सचिव ने मंजूरी दी।
- उसी दिन, चुनाव आयोग ने संशोधित ड्राफ्ट को मंजूर किया और मंत्रालय से आग्रह किया कि इसे शीघ्र अधिसूचित किया जाए।
- रात 10:23 बजे, 20 दिसंबर को अधिसूचना जारी कर दी गई।
पृष्ठभूमि: पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का आदेश
इस संशोधन से एक हफ्ते पहले, 9 दिसंबर को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया था कि वे हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित CCTV फुटेज और दस्तावेज वकील महमूद प्राचा को उपलब्ध कराएं।
उन्होंने नियम 93 के तहत Form 17C और बूथों की वीडियो रिकॉर्डिंग की मांग की थी, जिसे अदालत ने उचित ठहराया था।
संशोधन ने सुनिश्चित किया कि भविष्य में ऐसी जानकारी देने की आवश्यकता चुनाव आयोग पर न रहे।
कानून मंत्रालय की आपत्ति
चुनाव आयोग ने जो प्रारंभिक ड्राफ्ट भेजा था, उसमें “statutory papers” शब्द जोड़ा गया था — यानी केवल “कानूनी रूप से परिभाषित दस्तावेज़ों” को ही देखा जा सकेगा।
कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने इस पर आपत्ति जताई कि:
- “Statutory” शब्द अस्पष्ट है और नियमों में कहीं परिभाषित नहीं है।
- इससे नियम 93 में पहले से दी गई पारदर्शिता और जनता के निरीक्षण के अधिकारों पर अनावश्यक रोक लग सकती है।
- 63 सालों से लागू इन नियमों की मूल भावना के खिलाफ हो सकता है यह बदलाव।
“Statutory शब्द जोड़ने से जनता द्वारा दस्तावेज़ों के निरीक्षण पर और अधिक रोक लगेगी, जो कि इन नियमों का उद्देश्य नहीं है,” – कानून मंत्रालय के अधिकारी
चुनाव आयोग का तर्क: प्रशासनिक बोझ
चुनाव आयोग ने तर्क दिया कि “गैर-कानूनी दस्तावेज़ों और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्डिंग” को सार्वजनिक करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है, क्योंकि चुनाव के बाद रिटर्निंग ऑफिसर का कार्यकाल समाप्त हो जाता है, और फिर ऐसा करना प्रशासन पर अतिरिक्त बोझ डालता है।
इसके अलावा, आयोग ने कहा कि “all other papers” जैसी भाषा से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और इससे कोई कानूनी उद्देश्य पूरा नहीं होता।
अंतिम समाधान: शब्दों में किया गया संशोधन
कानून मंत्रालय की आपत्तियों के बाद, चुनाव आयोग ने अपने मसौदे में बदलाव किया और “statutory papers” के बजाय “इन नियमों में निर्दिष्ट अन्य सभी दस्तावेज़” शब्द जोड़ने पर सहमति जताई।
यह बदलाव जनता की पहुंच को सीमित तो करता है, लेकिन आयोग को पूरी छूट नहीं देता कि वह किसी भी दस्तावेज को मनमर्जी से गोपनीय घोषित कर दे।
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