नई दिल्लीः पिछले 26 वर्षों में 15 मुख्य चुनाव आयुक्तों (Chief Election Commissioners) की नियुक्ति अगर ‘परेशान करने वाली बात’ है, तो सुप्रीम कोर्ट को देश के 22 मुख्य न्यायाधीशों (CJI) की नियुक्ति पर भी नज़र डालनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट बनने के बाद यानी 1950 से 48 वर्षों तक 28 सीजेआई ही बने थे, जबकि पिछले 24 वर्षों में देश ने 22 सीजीआई देख लिए।
जजों की नियुक्ति के लिए 1998 से देश में सीजेआई के नेतृत्व वाला कॉलेजियम सिस्टम है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे सीनियर जज भी होते हैं। कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट में अब तक 111 जजों की नियुक्ति की है। उनमें से न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी 2004 में सीजेआई बनने वाले पहले व्यक्ति थे। तब से 15 जज और शीर्ष न्यायिक (top judicial) पद पर पहुंचे हैं। सुप्रीम कोर्ट जज के रूप में नियुक्ति के लिए सरकार को उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश करते समय सीजेआई और चार सबसे सीनियर जज जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में प्रत्येक का कार्यकाल क्या होगा। यानी वह किस तक के लिए सीजेआई रह सकेंगे/सकेंगी।
2000 के बाद से 22 मुख्य न्यायाधीश हुए हैं। इनमें से कई का कार्यकाल दिनों में गिना जा सकता है। जैसे- न्यायमूर्ति जीबी पटनायक (40 दिन), न्यायमूर्ति एस राजेंद्र बाबू (30 दिन) और न्यायमूर्ति यूयू ललित (74 दिन)। छोटे कार्यकाल वाले अन्य लोगों में जस्टिस अल्तमस कबीर और पी सदाशिवम (दोनों सीजेआई के रूप में 9 महीने से थोड़ा अधिक), जेएस खेहर (लगभग आठ महीने), और आरएम लोढ़ा (पांच महीने) थे। सीजेआई के नेतृत्व वाले कॉलेजियम ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के जजों के रूप में चुनने के बारे में क्या सोचा था, जिनका सीजेआई के रूप में कार्यकाल छोटा ही होगा, जो न्यायपालिका में सुधारों की योजना बनाने के लिए अपर्याप्त होगा, जहां पिछले दो दशकों में पेंडेंसी दोगुनी हो गई है।
दिलचस्प बात यह है कि जस्टिस जोसेफ की अगुआई वाली 5 जजों की बेंच ने मंगलवार को कहा, “कार्यपालिका (executive) की सनक पर चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति उस नींव का उल्लंघन करती है, जिस पर इसे बनाया गया था। इस प्रकार आयोग को कार्यकारी की एक शाखा बना दिया गया है।” सवाल है कि क्या ईसी/सीईसी की नियुक्तियों के लिए चयन पैनल में सीजेआई की उपस्थिति मेरिट में मदद करेगी और पारदर्शिता लाएगी?
यदि ऐसा है, तो सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ (constitution bench) ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को रद्द क्यों कर दिया, जिसे संसद द्वारा आम राय से कानूनी रूप से बनाया गया था? NJAC से पहले भी सीजेआई के नेतृत्व वाली कॉलेजियम प्रणाली के कामकाज को इसकी अपारदर्शिता और भाई-भतीजावाद (opaqueness and nepotism) के लिए लगातार आलोचना (criticism) का सामना करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट की सर्वश्रेष्ठ महिला न्यायाधीश रूमा पाल ने कहा था कि कॉलेजियम दरअसल “तुम मेरी पीठ खुजलाओ और मैं तुम्हारी पीठ खुजलाता हूं” के आधार पर काम करता है।
2015 के फैसले में NJAC को रद्द करते हुए सुप्रीम कोरक्ट ने जस्टिस पाल को यह कहते हुए उद्धृत किया था कि “कॉलेजियम के भीतर आम सहमति कभी-कभी लेन-देन के माध्यम से हल हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वादियों के विनाशकारी परिणामों और न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता के साथ संदिग्ध नियुक्तियां होती हैं। इसके अलावा, सिस्टम के भीतर बढ़ती चाटुकारिता (sycophancy) और पैरवी से संस्थागत स्वतंत्रता से भी समझौता किया गया है। न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर ने अपनी असहमति में एनजेएसी को मंजूरी दी थी। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपारदर्शिता के आरोप को स्वीकार किया और कहा-… कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता का अभाव है।” नियुक्तियों में अपारदर्शिता पर आरोपों में एक नया जोड़ दरअसल बिना कारण बताए ट्रांसफर किए जाने के लिए हाई कोर्ट के जजों के बीच बढ़ती हुई परेशानी है। कुछ तो इसे सीजेआई के परिवर्तन के बाद ‘बदले की कार्रवाई’ के रूप में देखते हैं।
न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने संक्षेप में आरोपों को बताया था और कहा था, “विश्वास की कमी ने कॉलेजियम प्रणाली की साख को प्रभावित किया है … योग्य व्यक्तियों को नजरअंदाज कर दिया गया है … निहित स्वार्थों (vested choices) को लाभ पहुंचाने के लिए कुछ नियुक्तियों को जानबूझकर लटकाया गया था … अयोग्य नियुक्तियां (किए गए थे) … कॉलेजियम के तानाशाही रवैये ने सुप्रीम कोर्ट के स्वाभिमान और गरिमा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है…।” उन्होंने कॉलेजियम में ‘ग्लासनोस्ट’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ की फौरन जरूरत बताई थी। बहरहाल, जस्टिस केएम जोसेफ हाल ही में कोलेजियम के सदस्य बने हैं, लेकिन जस्टिस कुरियन जोसेफ के एनजेएसी के फैसले पर गौर कर सकते हैं।
Also Read: गुजरात चुनाव: इन सीटों पर बहुमत में हैं अल्पसंख्यक उम्मीदवार