यूपी की सियासत के 'नेताजी' - Vibes Of India

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यूपी की सियासत के ‘नेताजी’

| Updated: October 11, 2022 12:38

मुलायम सिंह यादव के निधन से यूपी में एक युग का अंत हो गया। जिसमें उनके दोस्त, पार्टी के लोग और मतदाता उन्हें प्यार से ‘नेताजी’ कहते थे। उनके बिना यूपी की राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने तमाम उलटफेरों के बावजूद जो भारतीय राजनीति में हृदयस्थल (heartland) कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में बढ़-चढ़कर राजनीति की। वह भी 50 से अधिक वर्षों तक, जब तक कि बीमारी ने उन्हें घर नहीं बैठा दिया। वह विभिन्न समाजवादी संरचनाओं (socialist formations) से 10 बार विधायक चुने गए। सात बार लोकसभा सांसद और तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे। एक बार तो केंद्र में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार में देश के रक्षा मंत्री भी रहे, जहां से उनके करियर ने छलांग ली।

उनके पास कितना भी प्रभावशाली बायोडाटा हो, मुलायम की विरासत को परिश्रम (diligence), कलात्मकता (artfulness) और लचीलेपन (resilience) से संभाले गए पदों के हिसाब से नहीं आंका जा सकता। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के एक विशेष चरण के दौरान अधिकांश गैर-भाजपा नेताओं से अलग करने वाली उनकी वैचारिक सोच एक बार सत्तावादी सोच के हावी होने के बाद ढुलमुल हो गई। लेकिन जिस विरासत को उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता के रूप में वसीयत की, उसकी स्थापना उन्होंने 4 अक्टूबर 1992 को की थी। इसके साथ ही कई समाजवादी संगठन तेजी से बने थे, उतनी ही तेजी से गायब हो गए, जिन सबके सबके पीछे पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को माना जाता था।

जनता दल में आंतरिक चुनौतियों से अपने को बचाने के लिए सिंह की अपनी हताशा और उनकी सहयोगी भाजपा द्वारा उनकी अल्पसंख्यक सरकार पर लाए गए बाहरी दबावों ने उन्हें मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की सिफारिश करने के लिए प्रेरित किया होगा। ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों’ (socially and educationally backward classes) की पहचान करने के लिए गठित पैनल ने सार्वजनिक उपक्रमों (PSU) सहित सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। सिफारिश और इसके संभावित कार्यान्वयन (prospective implementation) ने उत्तर भारत में ओबीसी सशक्तीकरण (empowerment) को मजबूती दी। ऐसा आजादी से पहले और बाद में दक्षिणी राज्यों और पश्चिम के कुछ हिस्सों में ही देखी जाती थी। नौकरियों में रिजर्वेशन पहली बार उत्तर भारत की उपेक्षित (neglected) गैर-उच्च जातियों (non-upper castes) के लिए राजनीतिक सशक्तीकरण का कारण बना।

सिंह की ‘कट्टरपंथी’ पहल के सबसे बड़े और तुरंत लाभ पाने वाले मुलायम, लालू प्रसाद और कल्याण सिंह थे। बाद में इस तिकड़ी के उत्तराधिकारी मोदजी समेत कई भाजपा नेता भी बने। भाजपा ने चतुराई से मंडल सिफारिशों के निहितार्थों को समझा और हिंदुत्व-केंद्रित राजनीति के प्रचार के साथ-साथ प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। यह मोटे तौर पर मोदी के उदय को ‘हिंदुत्व पुनर्जागरण’ (Hindutva renaissance) के लिए जिम्मेदार ठहरा सकता है, लेकिन इसके पीछे ओबीसी शक्ति का आधार है। इसे ही गुजरात की एक अधिक पिछड़ी जाति से आने वाले मोदी ने इस्तेमाल किया।

मुलायम ने पहले ही रामनरेश यादव के नेतृत्व वाली यूपी में जनता पार्टी सरकार में सहकारिता मंत्री के रूप में ओबीसी सत्ता का स्वाद चख लिया था। उन्होंने कृषि और डेयरी में सहकारिता क्षेत्र का विस्तार किया। इसमें यादवों को शामिल किया। यह यादवों के लिए एक बड़े मकसद का एक छोटा-सा टुकड़ा ही था, जिसने उनमें हताशा पैदा कर दी। मुलायम के गृह क्षेत्र इटावा की सड़कों पर अंतर्जातीय प्रतिद्वंद्विता (intra-caste rivalries) फैल गई। फिर भी प्रशिक्षित पहलवान मुलायम अपने विरोधियों से निपटने के लिए सही व्यक्ति थे।

बिहार में मुलायम और लालू प्रसाद द्वारा बनाए गए राजनीतिक रास्ते समानांतर चले, लेकिन उभरती हुई भाजपा और हिंदुत्व के प्रसार की चुनौतियों से निपटने के उनके नजरिये में बड़ा अंतर था। कुछ लोग 1990 को मुलायम के करियर के उत्कर्ष (apotheosis) के रूप में मानेंगे, क्योंकि उन्होंने पुलिस का उपयोग करते हुए बाबरी मस्जिद की घेराबंदी करने के भाजपा के प्रयास को विफल कर दिया था। घटनाओं ने उन पर भारी चुनावी दबाव डाला। दरअसल, 1992 में बाबरी विध्वंस (Babri demolition) के बाद के चुनावों में भाजपा को रोकने के लिए मुलायम को बसपा के साथ हाथ मिलाने और भाजपा को जवाब देने के लिए ओबीसी-दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। एसपी-बीएसपी ने 1993 का चुनाव आसानी से जीत लिया, लेकिन मुलायम जाति संयोजन में निहित अंतर्विरोधों (contradictions) को नजरअंदाज नहीं कर सके। ताकतवर यादवों ने दलितों के उत्थान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इससे दोनों में संघर्ष देखने को मिले, जिससे गांवों मे हिंसा हुई।

यूपी की कट्टर जाति व्यवस्था में बड़ी जातियां अभी भी ऊपर हैं। अपने सुनहरे दिनों में भी मुलायम के समाजवादी मित्र बड़े पैमाने पर ‘सवर्ण’ थे, लेकिन दलित नहीं थे। शायद उन्हें अपने जाति इतिहास से दलितों के प्रति शत्रुता विरासत में मिली। दूसरी ओर, लालू प्रसाद ने अधिक और अत्यंत पिछड़ी जातियों, और दलितों सहित ओबीसी के गठबंधन को अधिक आसानी से मजबूत किया। इसलिए, बिहार में मुलायम की तुलना में वह अधिक सफल रहे। तब तक, जब तक कि वे भ्रष्टाचार के आरोपों में फंस नहीं गए।

अपने बाद के वर्षों में मुलायम के लिए वास्तविक राजनीति और अस्तित्व (realpolitik and survival) सर्वोपरि (paramount) था। भाजपा प्रमुख ध्रुव थी और उसने उस पार्टी के साथ गठजोड़ किए, जिससे 2003 में वाजपेयी शासन के दौरान लखनऊ में बसपा विधायकों को तोड़कर सपा की सरकार बनी। बदले में उन्होंने भाजपा के केसरी नाथ त्रिपाठी को कार्यकाल समाप्त होने तक यानी एक वर्ष से अधिक समय तक विधानसभा अध्यक्ष बने रहने देने में भाजपा की मदद की।

अब तक, अमर सिंह के साथ मुलायम के घनिष्ठ संबंध बन चुके थे। वह मुलायम के राजनीतिक विश्वासपात्र बन गए। उन्होंने बॉलीवुड और मुंबई के कॉर्पोरेट क्षेत्र में उनकी पैठ करा दी, जिससे आखिरकार उनका राजनीतिक आधार कमजोर ही हुआ। जनेश्वर मिश्रा और कपिलदेव सिंह जैसे समाजवादी दिग्गज लोगों के साथ संगति रखने वाले नेता अचानक अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी के साथ आराम से दिखने लगे।

अपने अंतिम वर्षों में वंशवादी राजनीति करने के आरोप का भी सामना करना पड़ा। उनके बेटे अखिलेश के उदय ने एक कड़वे पारिवारिक कलह को जन्म दिया, जो सपा के विभाजन पर खत्म हुआ। तब तक इसके ओबीसी आधार का अधिकांश हिस्सा भाजपा ने हड़प लिया था। यूं तो राजनीति में मुलायम दौर का अंत हो गया, लेकिन कौन जाने कब समय फिर एसपी का साथ दे दे।

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