अखिलेश यादव आखिर क्यों बना रहे हैं खास इलाके में प्रभाव वाले छोटे दलों के साथ बड़ा गठबंधन? - Vibes Of India

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अखिलेश यादव आखिर क्यों बना रहे हैं खास इलाके में प्रभाव वाले छोटे दलों के साथ बड़ा गठबंधन?

| Updated: December 29, 2021 18:47

पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में 14 दिसंबर को धर्मपुर मैदान खचाखच भरा हुआ था। मौका था अखिलेश यादव के नेतृत्व में चल रही विजय रथ यात्रा के छठे चरण का।

लाल, हरे, पीले और नीले रंग के झंडे लहराते हुए राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), जनवादी सोशलिस्ट पार्टी (जेएसपी), महान दल जैसे अन्य छोटे दलों के समर्थकों ने समाजवादी पार्टी के नए नारे लगाए। नारा था- ‘पिछड़ों का इंकलाब होगा, 22 में बदला होगा।’ ‘पिछड़ों की क्रांति आ रही है, बदलाव आ रहा है।’

जब खुद उनके बोलने की बारी आई, तो अखिलेश ने माइक्रोफोन लिया और कहा, “अपने चारों ओर देखो। कितने रंग के झंडे हमारे पास हैं। झंडों के इतने रंग आपको और कहीं नहीं मिलेंगे। इन सभी रंगों से हमने एक बहुरंगी गुलदस्ता बनाया है। अब, यह भगवा की एकतरफा मानसिकता के खिलाफ बहुरंगी गठबंधनों की लड़ाई बन गई है।”

बता दें कि 2017 और 2019 के चुनावों में हार के बावजूद अखिलेश यादव क्रमशः कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन में थे। लेकिन अब वह गठबंधन के बारे में उत्साहित रहते हैं, तो नई ट्विस्ट के साथ।

इस बार वह पूरे उत्तर प्रदेश से जाति आधारित छोटी पार्टियों को साथ लाकर मजबूत गठबंधन बना रहे हैं। इसके पीछे की रणनीति यही लगती है कि अखिलेश यादव 2014 से गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग के खिलाफ पक्षपात करने के आरोपों के दबाव में हैं और इस छवि को छोड़ने के इच्छुक हैं।

2017 के विधानसभा चुनावों के लिए एक्सिस माई इंडिया के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 58% ओबीसी ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया, जबकि केवल 18% ने एसपी को वोट दिया। लेकिन सपा को वोट देने वाले यादवों का प्रतिशत 80% था।

यही कारण है कि अखिलेश गैर-यादव ओबीसी का प्रतिनिधित्व करने वाली छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन करने की कोशिश कर रहे हैं, जो उत्तर प्रदेश में ओबीसी आबादी का 35% हैं।

बीबीसी के पूर्व संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ”अखिलेश के लिए यह चुनाव जीतना सबसे बड़ी चुनौती है, ताकि सपा की केवल यादवों की पार्टी छवि को तोड़ा जाए।”

इस विचार से सहमत एक अन्य अनुभवी पत्रकार बृजेश शुक्ला कहते हैं, “सपा की पिछली सरकारों के दौरान कई स्थानीय नेताओं पर भूमि हथियाने, निविदाएं जमा करने और गुंडागर्दी करने का आरोप लगा था। इस बार उन्हें मतदाताओं को आश्वस्त करने की आवश्यकता है कि इसे दोहराया नहीं जाएगा। बराबरी वालों के बीच यादवों को ही प्राथमिकता नहीं मिलेगी।”

कुछ लोगों का सुझाव है कि अखिलेश अपने पिता मुलायम सिंह यादव द्वारा सिद्ध किए गए सफल फॉर्मूले का उपयोग करके खुद को सभी पिछड़े समुदायों के नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। लखनऊ में भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर प्रीति चौधरी का कहना है कि यह फॉर्मूला अखिलेश के लिए लाभांश का भुगतान कर सकता है।

उन्होंने कहा, “मुलायम सिंह के पास विभिन्न जातियों के नेताओं का एक गुलदस्ता था और वे पूरे उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों का ध्यान रखा करते थे। लेकिन बाद में इन जातिगत नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टियां बना लीं। अब अखिलेश उनके समुदाय का वोट पाने की उम्मीद में उनके साथ ही गठबंधन करने की कोशिश कर रहे हैं। ”

प्रतिशत का खेल

अखिलेश को अब एहसास हो गया है कि केवल मुसलमानों और यादवों के समर्थन से चुनाव नहीं जीता जा सकता है। जीतने के लिए सपा को राज्य में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाना होगा। 2012 में जब सपा सत्ता में आई थी, तो पार्टी को 29.7% वोट मिले थे, जबकि 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 40% वोट मिले। मुस्लिम और यादव दरअसल सपा के मुख्य मतदाता रहे हैं, जिनके वोट शेयर 24-25% तक हो जाते हैं। पहले सपा अतिरिक्त 7-8% वोट पाने के लिए स्थानीय उम्मीदवारों पर निर्भर थी, लेकिन अब वह भी पर्याप्त नहीं है।

मतदान एजेंसी सी-वोटर के संस्थापक-निदेशक यशवंत देशमुख कहते हैं, ‘2014 के बाद से यूपी में स्थिति बदल गई है। चुनाव जीतने के लिए एक पार्टी को 40% वोट शेयर प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। दरअसल एक 30% की छाया है, जहां सपा पहले ही पहुंच चुकी है। लेकिन अखिलेश इसे भुना पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। उनका विचार है कि उनका अपना आधार 25% है, और इन छोटी पार्टियों के साथ उनका आधार 15% और बढ़ सकता है, जिससे वह 40% वोट हासिल करते हुए साथ सरकार बना लेंगे।”

हालांकि इसके विपरीत भी विचार हैं, जो कहते हैं कि सपा 36-38 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भी सरकार बना सकती है।

पीईएसीएस न्यूज सर्विस के चुनाव विज्ञानी और प्रबंध निदेशक शमशाद खान कहते हैं, “अगर सपा को 30% वोट मिले, तो वे 100-120 सीटों पर रुक सकते हैं, लेकिन इन पार्टियों के एक साथ आने से उनका वोट शेयर 34% तक बढ़ जाता है। इस तरह उन्हें 200 सीटें मिल जाएंगीं। और एक बार जब वे 36 फीसदी तक पहुंच जाते हैं, तो उन्हें करीब 250 सीटें मिल सकती हैं, क्योंकि तब भाजपा का पिछली बार का वोट शेयर भी कम होना शुरू हो जाएगा।

पारिवारिक समीकरण

अखिलेश के गठबंधन में नए सहयोगी उनके चाचा शिवपाल यादव हैं, जो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के प्रमुख हैं। इस साल 16 दिसंबर को शिवपाल से उनके घर पर एक घंटे की मुलाकात के बाद अखिलेश ने उनके साथ एक फोटो ट्वीट किया था और औपचारिक तौर पर गठबंधन की घोषणा की थी। यह छठी पार्टी थी, जिसके साथ अखिलेश ने एक महीने के भीतर गठबंधन किया था। इटावा, मैनपुरी, कन्नौज और फिरोजाबाद जिलों सहित यादव गढ़ में शिवपाल का महत्वपूर्ण प्रभाव है।

सीएनबीसी आवाज के पूर्व प्रमुख और वरिष्ठ पत्रकार आलोक जोशी कहते हैं, ‘शिवपाल ने मुलायम सिंह यादव के साथ सालों तक काम किया है। उनकी जबरदस्त संगठनात्मक क्षमता से सपा को निश्चित तौर पर फायदा होगा।

सबसे मजबूत सहयोगी

रालोद अखिलेश यादव की सबसे मजबूत सहयोगी है। यह जाट बिरादरी में मजबूत वोट आधार के साथ पश्चिमी यूपी की क्षेत्रीय पार्टी है। इसकी स्थापना जाट किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने की थी। उनके बेटे अजीत सिंह, आठ बार के सांसद और पार्टी के अध्यक्ष, की कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान मृत्यु हो गई।

पार्टी का नेतृत्व इस समय उनके बेटे जयंत चौधरी कर रहे हैं। 2013 का मुजफ्फरनगर दंगा पार्टी के लिए एक बड़ा झटका था। इसने समाज को तेजी से विभाजित किया और उनका पारंपरिक जाट वोट भाजपा में स्थानांतरित हो गया।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज स्टडीज के मुताबिक, 2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा को जाट वोटों का क्रमश: 77 और 91 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2012 के चुनावों में उसे इनमें से केवल 7% वोट मिले थे। 2017 के विधानसभा चुनावों में रालोद केवल एक सीट जीत सकी थी और राज्य में उसे केवल 1.78% वोट मिले थे।

ऐसा लगता है कि पार्टी ने इस क्षेत्र में अपना आधार वापस पा लिया है और किसान आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों को एक साथ आने का अवसर प्रदान किया है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा में शामिल हुए जाटों का बड़ा हिस्सा पार्टी में वापस आ सकता है।

राजनीतिक दलों के अनुमान के मुताबिक, पश्चिमी यूपी के करीब 20 जिलों में करीब 14 फीसदी जाट हैं। बागपत, मेरठ, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, सहारनपुर और शामली में रालोद का अच्छा प्रभाव है। इस प्रकार अखिलेश पश्चिमी यूपी में जयंत की लोकप्रियता पर निर्भर हैं।

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ”दो दशक बाद मैं पश्चिमी यूपी में रालोद को उसके पुराने रूप में एक मजबूत ताकत के रूप में देख सकता हूं। इलाके में रालोद का अपना वोट जरूर बढ़ेगा।’

एसबीएसपी

एसबीएसपी जाति आधारित क्षेत्रीय संगठन है, जो राजभर समुदाय और कुछ अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थापना 2002 में इसके वर्तमान अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने की थी। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमानों के अनुसार, यूपी में राजभर समुदाय लगभग 4% है। वे मुख्य रूप से पूर्वी यूपी की 70-80 सीटों पर पाए जाते हैं, जिनमें 35 निर्वाचन क्षेत्रों में 10,000 से 40,000 के बीच राजभर वोट हैं।

आजमगढ़, बलिया, मऊ, मिर्जापुर और गाजीपुर जिलों में ओम प्रकाश राजभर का प्रभाव है। पार्टी 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन में थी, जब उसने चार सीटें जीतीं और लगभग छह लाख वोट (0.70%) प्राप्त किए। इस बार उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है।

शरत प्रधान कहते हैं, “राजभर समुदाय ने 2017 में भाजपा के लिए वोट किया था, लेकिन इस बार एसबीएसपी के कारण ही नहीं, बल्कि राम अचल राजभर और सुखदेव राजभर जैसे बसपा के मजबूत राजभर नेताओं के एसपी में शामिल होने के कारण इस बार सपा गठबंधन में जा सकते हैं। “

जेएसपी

जेएसपी की स्थापना और नेतृत्व गाजीपुर के पिछड़े समुदाय के नेता संजय चौहान ने किया। पार्टी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के ओबीसी नोनिया समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान के मुताबिक, राज्य में लगभग 2% नोनिया हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में जेएसपी प्रमुख ने सपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा और करीब 5 लाख वोट हासिल किए थे। जेएसपी के प्रभाव से निपटने के लिए भाजपा ने पृथ्वीराज जनशक्ति पार्टी के चंदन सिंह चौहान के साथ गठबंधन किया है, जो उसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।

लखनऊ विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं, ‘संजय चौहान का वाराणसी, चंदौली, गाजीपुर और भदोही में नोनिया समुदाय के बीच अच्छा प्रभाव है। यह निश्चित रूप से अखिलेश के लिए फायदेमंद होगा।

महान दल

महान दल एक जाति आधारित क्षेत्रीय पार्टी है। यह मौर्य, कुशवाहा और शाक्य ओबीसी समुदायों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका नेतृत्व केशव देव मौर्य कर रहे हैं। इसकी स्थापना 2008 में हुई थी।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान के अनुसार,  यह समुदाय लगभग 6% हैं। केशव देव मौर्य को कासगंज, फर्रुखाबाद, एटा, बदायूं और फतेहपुर जैसे जिलों में पिछड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त है।

वरिष्ठ पत्रकार हिसाम सिद्दीकी कहते हैं, ”पिछले कुछ चुनावों में इन समुदायों के बड़े हिस्से ने भाजपा का समर्थन किया था, लेकिन उनके साथ गठबंधन हो जाने से सपा को मदद मिलेगी। केशव देव मौर्य अपने समुदाय को एकजुट करने के लिए लगभग एक दर्जन जिलों में यात्रा कर चुके हैं।

अपना दल (कामेरावाड़ी)

मूल रूप से अपना दल मुख्य रूप से पूर्वी यूपी में कुर्मी ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली जाति-आधारित पार्टी है, जिसकी स्थापना कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल ने की थी, जो पहले बसपा में थे।

उनकी मृत्यु के बाद पारिवारिक कलह ने उनकी पार्टी को दो गुटों में विभाजित कर दिया। सोनेलाल की बेटी अनुप्रिया पटेल, जो वर्तमान में केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं, अपना दल (एस) का नेतृत्व करती हैं और उनकी मां कृष्णा पटेल अनुप्रिया की छोटी बहन पल्लवी पटेल द्वारा समर्थित अपना दल (कामेरावाड़ी) की अध्यक्ष हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, यूपी में 5 फीसदी कुर्मी वोटर हैं और पूर्वी यूपी में करीब 12 फीसदी। कुर्मियों का वाराणसी, मिर्जापुर, बरेली और अंबेडकर नगर जैसे जिलों में दबदबा है। यूपी में पिछले कुछ चुनावों में कुर्मी समुदाय ने भाजपा का पूरा समर्थन किया।

इस बार सपा एक मजबूत कुर्मी नेता और पूर्व बसपा विधायक कृष्ण पटेल और लालजी वर्मा को अपने पाले में लाकर समुदाय में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है।

बृजेश शुक्ला कहते हैं, ”कृष्णा पटेल का कुर्मी वोटों पर उतना प्रभाव नहीं है, जितना उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल का। लेकिन लालजी वर्मा पार्टी के लिए ज्यादा वोट खींचने वाले साबित होंगे।

छोटा लेकिन महत्वपूर्ण

हालांकि इन पार्टियों का राज्यव्यापी प्रभाव नहीं है, फिर भी इनके महत्व को इनके क्षेत्रवार प्रदर्शन को देखकर समझा जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि ये पार्टियां अलग-अलग प्रभाव पैदा नहीं करती हैं, लेकिन जब वे गठबंधन में काम करती हैं, तो जबरदस्त ताकत बन सकती हैं।

शमशाद खान कहते हैं, ”अगर 12 सीटों पर संजय चौहान, 5 सीटों पर कृष्णा पटेल, 10 सीटों पर ओम प्रकाश राजभर का असर है, तो यह भाजपा के लिए नुकसानदेह होगा और सपा को फायदा होगा। हर सीट पर औसतन 3,75,000 लोग वोट करते हैं। यदि कोई पार्टी किसी विशेष सीट पर 25,000 वोटों को स्थानांतरित करने में सक्षम है, तो यह बहुत बड़ी बात है। जो कोई भी हर सीट के हिसाब से इस चुनावी प्रबंधन करेगा, यकीनन वही चुनाव जीतेगा।”

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