1964 में जवाहर लाल नेहरू( Jawahar Lal Nehru) की मृत्यु के कुछ महीने बाद रजनी कोठारी( Rajni Kothari )नाम के एक युवा नेता ने ‘द कांग्रेस “सिस्टम” इन इंडिया’ “The Congress “System” in India ” शीर्षक से लेख लिखा था। इसमें उन्होंने बताया कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था दरअसल “एक पार्टी के प्रभुत्व” वाली थी। वैसे यह भयंकर प्रतिस्पर्धा वाली राजनीति थी, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों ने अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। वह एक प्रतिस्पर्धी राजनीति थी, लेकिन दूसरे राजनीतिक दल मजबूत नहीं हो सके।
रजनी ने कांग्रेस को एक आम सहमति वाली पार्टी प था। तब कांग्रेस के वर्चस्व के कारण विपक्षी दलों का दबाव प्रभावी नहीं रह सका था। इस राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव के समय दबाव का अंतर घटा या बढ़ा। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर खंडित और विभाजित विपक्ष ने कांग्रेस की ‘सहमति’ को और अधिक वैध बना दिया। यह पुरानी कांग्रेस प्रणाली मोटे तौर पर नेहरू से लेकर नरसिंह राव( Narasimha Rao) तक चलती रही और आजादी के 50वें वर्ष तक काफी हद तक ध्वस्त हो गई। दो दशकों के संक्रमण के बाद, अब इसकी जगह ‘नई भाजपा प्रणाली’ ने ले ली है। ‘द न्यू बीजेपी’ के लेखक और स्कूल ऑफ मॉडर्न मीडिया, यूपीईएस के डीन नलिन मेहता (Dean Nalin Mehta) ने कांग्रेस और भाजपा के दबदबे को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया में एक विश्लेषण किया है, जो इस तरह है-
भाजपा बनाम अन्यः
दरअसल इस नई भाजपा प्रणाली ने भारत की आजादी के 75वें वर्ष तक अपनी जड़ें जमा ली है। हालांकि प्रणाली की रूपरेखा अब भी उभर रही है। 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी Prime Minister Narendra Modi के कार्यकाल में आकार लेने वाली यह प्रणाली भारतीय राजनीति में दो दशकों के राजनीतिक मंथन और प्रयोग पर चलते हुए आगे बढ़ी है। यह अगले तीन दशकों यानी आजादी के 100वें वर्ष 2047 तक भारतीय राजनीति में अपना प्रभुत्व कायम रख सकती है। अलग-अलग चुनाव में जीत या हार हो सकती है, लेकिन चुनावी जंग भाजपा के लिए या भाजपा के खिलाफ ही होगी। जैसे कांग्रेस( Congress ) के समय कभी हुआ करती थी।
यह बदलाव कितना मजबूत है?
भारत की आजादी की गोल्डन जुबिली मनाए जाने से एक साल पहले 1996 में पहली बार आम चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 30 प्रतिशत से नीचे चला गया था। इसके बाद उसने इस आंकड़े को कभी पार नहीं किया। सोनिया गांधी ने 1998 में पार्टी की कमान अपने हाथों में लेकर इस गिरावट को संभाला। कांग्रेस को दो बार सत्ता भी दिलाई लेकिन वोट शेयर बढ़ नहीं सका। भाजपा 1990 के दशक से लगातार 20% से ऊपर बनी रही और 2014 में पहली बार 30% अंक को पार किया, जो 2019 में 37.6% तक बढ़ गया।
विलय/अधिग्रहण और नए इलाकों में विस्तारः
वैसे तो हिंदी भाषी क्षेत्र ने भाजपा को आगे बढ़ाने में काफी मदद की है लेकिन भगवा दल की दूसरे क्षेत्रों में वृद्धि भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वोत्तर में भाजपा 2009 में 12.8 प्रतिशत से 2019 में 33.7 प्रतिशत पर आ गई। पूर्वी भारत में 9.3 प्रतिशत से बढ़कर जनाधार 39.7 प्रतिशत पहुंचा। पश्चिम भारत में 27.6 प्रतिशत से 39.8 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 11.9 प्रतिशत से 17.9 प्रतिशत पहुंच गया।
2047 तक, ऐसा अनुमान है कि तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी भाजपा के पहले मुख्यमंत्री बन चुके होंगे। यहां तक कि तमिलनाडु में भी भगवा दल का कमाल देखने को मिल सकता है। मर्जर और अधिग्रहण के चलते भाजपा कमल खिला सकती है जिसके दम पर पूर्वोत्तर में आज उसका प्रभाव दिखता है।
सामाजिक गठजोड़, हिंदुत्व पर आम सहमति
कांग्रेस के अच्छे दिनों में भाजपा के आगे बढ़ने में हिंदुत्व बड़ी बाधा थी। लेकिन यह विचारधारा अब घाटे का सौदा नहीं है। आज यह भाजपा की कोर ब्रांड का महत्वपूर्ण हिस्सा है और सटीक सामाजिक गठजोड़ के साथ उसका चुनावी रथ आगे बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक रूप से संभावना जताई जा सकती है कि भाजपा अगले दो दशकों तक हिंदुत्व के एजेंडे पर मजबूती से आगे बढ़ेगी। कई महत्वाकांक्षी भाजपा क्षत्रपों के लिए योगी मॉडल एक उदाहरण पेश कर सकता है।
आरएसएस से भी बड़ी भाजपाः
भाजपा का आरएसएस( RSS )के साथ लंबा रिश्ता रहा है, लेकिन यह आगे बढ़ते हुए काफी हद तक उस निर्भरता को पीछे छोड़ चुकी है। 2014 से 2019 के बीच भाजपा का पांच गुना विस्तार हुआ, यह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की साइज से लगभग दोगुनी हो गई। 2019 तक भाजपा में 174 मिलियन सदस्य थे, जो संघ के अनुमानित आकार से 29 गुना अधिक है। नई महिला मतदाता. सोशल इंजीनियरिंग और ग्रामीण भारत में पैठ बनाने के साथ भाजपा ने 1950 के दशक में कांग्रेस के बाद अपनी तरह का पहला राष्ट्रीय स्तर का सबसे बड़ा काडर खड़ा कर लिया। भारत के करीब दो तिहाई जिलों में भाजपा ने 522 पार्टी ऑफिस बनाए। ये पार्टी के गहरी पैठ बनाने का महत्वपूर्ण केंद्र हैं।
नया विपक्ष?
पुरानी कांग्रेस प्रणाली की तरह राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर विपक्ष से भाजपा को फायदा हो रहा है। व्यावहारिक रूप से देखें तो असली विपक्ष अब क्षेत्रीय स्तर पर है। मोदी युग के बाद एक नया राष्ट्रीय विपक्ष आकार ले सकता है। उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी प्रमुख विपक्षी ताकत के रूप में कांग्रेस की जगह ले सकती है। हालांकि ऐसा होता है या नहीं, यह कई अलग-अलग फैक्टरों पर निर्भर करेगा। राजनीति में एक हफ्ते का समय भी लंबा टाइम होता है। इतिहासकार ई. एच. कार ने कहा था कि इतिहास की भविष्यवाणी करना ‘पार्लर गेम’ से ज्यादा कुछ नहीं है लेकिन भारत के राजनीतिक बदलाव की दिशा स्पष्ट है।
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