दक्षिण भारत में राजनीतिक लड़ाई राष्ट्रीय टेलीविजन चैनलों पर चर्चा का प्रमुख विषय बन गया है, जबकि वहीं इस क्षेत्र में एक और गंभीर चिंता उभर रही है — लोकसभा सीटों के संभावित पुनर्सीमन की। यह प्रक्रिया न केवल चुनावी व्यवस्था में बड़े बदलाव ला सकती है, बल्कि पूरे देश में सीटों की संख्या बढ़ा सकती है। वर्तमान में सीटों का आवंटन स्थिर है, लेकिन विशेष रूप से दक्षिण भारतीय राज्यों की ओर से इसे फिर से देखने और संशोधित करने की मांग बढ़ रही है।
लोकसभा सीटों की संख्या 1976 से स्थिर
फिलहाल लोकसभा सीटों की संख्या 543 है, जो 1976 से अब तक नहीं बदली है। उस समय तत्कालीन सांसद मुरासोली मारन (बाद में केंद्र सरकार में मंत्री बने) के आग्रह पर यह संख्या स्थिर की गई थी। उन्होंने तर्क दिया था कि मद्रास (वर्तमान तमिलनाडु) जैसे दक्षिणी राज्यों में जनसंख्या में वृद्धि उतनी नहीं हुई है, क्योंकि वहां परिवार नियोजन के उपाय अधिक प्रभावी थे। यह ‘फ्रीज’ शुरुआत में 25 वर्षों के लिए तय किया गया था, जो 2001 में समाप्त होना था।
2001 में ‘फ्रीज’ को मिला विस्तार, अब समाप्ति की ओर
2001 के आते-आते तमिलनाडु ने इस फ्रीज को 50 वर्षों के लिए और बढ़ाने की मांग की। इसके बाद सरकार द्वारा गठित परिसीमन आयोग ने इस मांग को स्वीकार करते हुए समयसीमा बढ़ा दी। लेकिन अब यह अवधि समाप्ति के कगार पर है, और इससे नए परिसीमन की संभावना एक बार फिर खुल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और सत्ता में बैठे लोगों को अब यह तय करना होगा कि लोकसभा सीटों की संख्या को किस प्रक्रिया से फिर से आंका जाए।
लेकिन एकतरफा निर्णय नहीं ले सकती सरकार
हालांकि, मोदी और भाजपा इस दिशा में अकेले कोई फैसला नहीं ले सकते क्योंकि यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल है। स्थिति को और उलझा दिया है 2021 में जनगणना न होने ने। सरकार ने इसके पीछे कोविड महामारी से जनसंख्या आंकड़ा संग्रहण प्रणाली में आए व्यवधान का हवाला दिया। नतीजतन, फिलहाल सबसे हालिया जनगणना 2011 की ही है।
2026 या 2031 तक बढ़ानी होंगी लोकसभा सीटें?
ऐसा माना जा रहा है कि 2026 में या अगली जनगणना (संभावित रूप से 2031) तक लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ानी ही होगी। लेकिन समस्या यह है कि 2026 में 2011 के आंकड़ों के आधार पर सीटों का पुनर्सीमन करना किसी को भी स्वीकार्य नहीं होगा। विपक्ष का आरोप है कि पूरी प्रक्रिया जानबूझकर टाली जा रही है ताकि सत्ता पक्ष को राजनीतिक लाभ मिलता रहे।
राजनीतिक दलों के रुख से बढ़ी पेचीदगी
इन आरोपों के बीच कांग्रेस पार्टी की अस्पष्ट स्थिति ने मामले को और उलझा दिया है। वहीं, यह खबर भी है कि मोदी और उनके सहयोगी आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू से संपर्क कर रहे हैं, क्योंकि माना जा रहा है कि वे लोकसभा सीटों की मौजूदा संरचना में किसी भी बदलाव का विरोध कर सकते हैं। गौरतलब है कि 1960 के दशक में जब सीटों की संख्या बढ़ी थी, तब आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों की संसद में भागीदारी कम हो गई थी क्योंकि इन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में सफलता पाई थी।
नायडू का रुख क्या होगा, अभी साफ नहीं
चंद्रबाबू नायडू का अंतिम निर्णय क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन राजनीतिक समीकरणों के बदलते परिदृश्य में संभावना है कि वे स्वतंत्र रुख अपनाएं। देश के अन्य राजनीतिक दल भी अपनी-अपनी ज़मीनी हकीकतों को देखते हुए इस बहस में शामिल हो सकते हैं — जैसे कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते कोई अलग राय रख सकती है, जबकि पंजाब में अकाली दल और आम आदमी पार्टी की अपनी-अपनी राजनीतिक चिंताएं हैं।
अंततः यह बन सकता है राजनीति का नया खेल
आख़िरकार यह पूरा मामला राजनीतिक पार्टियों के लिए एक रणनीतिक खेल बन सकता है, जिसमें हर दल अपनी ज़मीनी सच्चाइयों और राजनीतिक हितों के अनुसार रुख अपनाएगा। तेलुगू देशम पार्टी के लिए ज़मीनी हालात अब बदल चुके हैं, इसलिए नायडू भी शायद एक नया राजनीतिक स्टैंड अपनाएं।
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