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AI-171 क्रैश के बाद जब सिर्फ एक अंग बचा पहचान के लिए, फिर जो हुआ वो भावुक कर देगा!

| Updated: June 14, 2025 11:29

अहमदाबाद में हुए AI-171 विमान हादसे के बाद शवों की पहचान और परिजनों को शव सौंपने की प्रक्रिया में वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और पुलिस कर्मियों को किन जटिलताओं और संवेदनशीलताओं का सामना करना पड़ता है, जानिए इस रिपोर्ट में।

बेंगलुरु: अहमदाबाद में गुरुवार को हुए एयर इंडिया की फ्लाइट AI-171 (बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर) के भयावह हादसे ने पूरे देश को सदमे में डाल दिया है। 265 से अधिक लोगों की जान लेने वाला यह हादसा न सिर्फ मानवीय दृष्टिकोण से बेहद दर्दनाक है, बल्कि इसके बाद की प्रक्रिया – बचाव, राहत और शवों की पहचान – एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाती है, जिसमें संवेदनशीलता, वैज्ञानिक विशेषज्ञता और कई एजेंसियों के बीच तालमेल की आवश्यकता होती है।

हादसे के तुरंत बाद की जमीनी हकीकत

इस तरह के भीषण हादसों के तुरंत बाद राहत कार्य शुरू हो जाता है। पुलिस क्षेत्र को घेरती है, दमकल कर्मी आग बुझाते हैं, राहत दल जीवित बचे लोगों की तलाश करता है और उन्हें अस्पताल पहुंचाता है। साथ ही, मलबे से शवों को निकालकर नजदीकी शवगृह में भेजा जाता है।

इस पूरी प्रक्रिया में एयरपोर्ट अथॉरिटी, स्थानीय पुलिस, नगर निकाय, एंबुलेंस सेवा, मेडिकल और पैरा-मेडिकल स्टाफ, आपदा प्रबंधन बल और स्वयंसेवी युवाओं की भूमिका अहम होती है।

सबसे कठिन कार्य: शवों की पहचान

हादसे के बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है शवों की पहचान, जो अक्सर बुरी तरह जल चुके या क्षत-विक्षत हो चुके होते हैं।

“परिवारों पर भावनात्मक दबाव होता है, लेकिन जल्दबाज़ी से पहचान में गलती भी हो सकती है,” ऐसा मानना है डॉ. वीणा वासवानी का, जो येनेपोया (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी), मैंगलुरु में फॉरेंसिक मेडिसिन एवं टॉक्सिकोलॉजी की प्रोफेसर और सेंटर फॉर एथिक्स की डायरेक्टर हैं।

डिसास्टर विक्टिम आइडेंटिफिकेशन (DVI) के इंटरपोल दिशानिर्देशों के अनुसार, डीएनए प्रोफाइलिंग सबसे विश्वसनीय तरीका है। डॉ. वासवानी बताती हैं, “मृतक का डीएनए सैंपल लिया जाता है और उसकी तुलना उनके प्रथम श्रेणी के जैविक परिजनों के डीएनए से की जाती है। साथ ही, परिजनों से मृतक से जुड़ी मेडिकल जानकारी जैसे दांतों का इलाज, पुराने फ्रैक्चर या इम्प्लांट्स की जानकारी भी ली जाती है।”

गहनों, टैटू, या पुराने ऑपरेशन के निशान भी कभी-कभी सहायक सिद्ध होते हैं, लेकिन पहचान का अकेला आधार नहीं हो सकते। वह कहती हैं, “यह प्रक्रिया समय लेती है – एक सप्ताह या उससे भी अधिक।”

2010 के मैंगलुरु एयर इंडिया एक्सप्रेस हादसे का उदाहरण देते हुए वह बताती हैं, “उस समय 10-12 शवों की पहचान नहीं हो सकी थी और अंततः राज्य सरकार ने उनका अंतिम संस्कार किया था।”

बालों की जड़, नाखून, दांत, ऊतक और बोन मैरो से डीएनए निकाला जा सकता है, लेकिन गंभीर जलने की स्थिति में यह भी मुश्किल हो सकता है।

शोकग्रस्त परिवारों को संभालना भी एक बड़ी चुनौती

जहां एक ओर वैज्ञानिक टीम शवों की पहचान में जुटी होती है, वहीं दूसरी ओर शोक में डूबे परिजनों की भावनाओं को संभालना भी बेहद महत्वपूर्ण होता है।

डॉ. वासवानी कहती हैं, “दुर्भाग्यवश भारत में प्रोफेशनल ग्रिफ काउंसलर की सुविधा नहीं है। इसलिए अक्सर नर्स, पुलिसकर्मी और अस्पताल का स्टाफ ही परिजनों को सांत्वना देने की कोशिश करते हैं। इसके लिए गहरी सहानुभूति और धैर्य की आवश्यकता होती है।”

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भविष्य की तैयारियों की ज़रूरत

येनेपोया यूनिवर्सिटी बीते 10 वर्षों से DVI प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही है, जिसमें फॉरेंसिक डॉक्टरों, डेंटिस्टों और वैज्ञानिकों को आपदा के वास्तविक हालातों की नकल करके प्रशिक्षण दिया जाता है।

डॉ. वासवानी कहती हैं, “हमारा उद्देश्य भारत में आपदा प्रतिक्रिया क्षमताओं को वैश्विक मानकों तक पहुंचाना है।”

AI-171 हादसे के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देते हुए हमें उन अज्ञात नायकों को भी सलाम करना चाहिए जो शवों की पहचान, चिकित्सा परीक्षण और परिजनों को सांत्वना देने जैसे कठिन कार्यों में जुटे हैं—जो नज़र नहीं आते, लेकिन सबसे ज़रूरी होते हैं।

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