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कोविड-19 को पांच साल हो गए, लेकिन ‘लॉन्ग कोविड’ से जूझ रहे मरीजों की तकलीफें आज भी हैं उतनी ही ताज़ा

| Updated: July 1, 2025 17:01

यह दो-भाग वाली सीरीज़ का पहला लेख है, जिसमें लॉन्ग कोविड पर चर्चा की जा रही है।

नई दिल्ली: अपने 20 के दशक के उत्तरार्ध में पहुंच चुकी प्रज्ञा ने अपने बाल मुंडवा दिए हैं। यह कोई इच्छा से लिया फैसला नहीं था, और न ही कोई ऐसा रोग था जिससे आम तौर पर गंजेपन की आशंका हो। असल वजह थी उसकी थकान – बाल रोज़ संवारना इतना मुश्किल हो गया था कि वह अब ऐसा करने की स्थिति में ही नहीं रही।

प्रज्ञा की यह थकान कोई ऐसी बीमारी नहीं है जिसके लक्षणों को हम साफ-साफ पहचानते हों। यह लॉन्ग कोविड कही जाने वाली स्थिति के कारण है।

दुनिया जहां कोविड-19 महामारी के पांच साल पूरे होने का ‘मील का पत्थर’ मना रही है और वायरस समय-समय पर संक्रमण के मामलों में अचानक उछाल के चलते खबरों में लौट आता है, वहीं लॉन्ग कोविड के मरीज, जिन्हें लॉन्ग हॉलर्स भी कहा जाता है, आज भी वो ध्यान और इलाज नहीं पा रहे हैं जिसके वे हकदार हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक –

“पोस्ट कोविड-19 कंडीशन उन लोगों में पाई जाती है जिनके पास SARS-CoV-2 संक्रमण का पुष्ट या संभावित इतिहास है। यह आम तौर पर कोविड-19 की शुरुआत के तीन महीने बाद होती है और कम से कम दो महीने तक चलती है। इन लक्षणों को किसी अन्य डायग्नोसिस से समझाया नहीं जा सकता।”

प्रज्ञा बताती हैं कि वह ज़्यादातर समय बिस्तर पर ही पड़ी रहती हैं।

“मैं लंबी दूरी तक चल नहीं सकती, सीढ़ियां नहीं चढ़ सकती। जो चीजें 30 के दशक के युवाओं के लिए सामान्य मानी जाती हैं, जैसे कोई भी व्यायाम – वो सब असंभव है।”

प्रज्ञा को 2021 और 2023 में दो बार कोविड-19 हो चुका है।

दिल्ली की एक्टिविस्ट मीनाक्षी, जो खुद भी लॉन्ग हॉलर हैं, कहती हैं –

“यह कोई साधारण थकान नहीं है। यह ऐसी थकावट है जो आपकी जिंदगी रोक देती है। आप बात भी नहीं कर सकते। फोन पर बात करते हुए भी थकावट महसूस होती है।”

उन्होंने द वायर को बताया कि यह तय करने में ही दो दिन लग गए कि वह इस इंटरव्यू के लिए बात कर पाएंगी या नहीं।

हालांकि कई स्टडीज में यह साबित हो चुका है कि ये लक्षण वास्तविक हैं और मरीजों को परेशान कर रहे हैं, पर कोई ठोस समाधान अभी तक नहीं मिल पाया है। मीनाक्षी कहती हैं –

“लोगों को जो थकान हो रही है, वह किसी व्यवस्थित परिभाषा में फिट नहीं बैठती।”

एक शोध-पत्र के मुताबिक –

“हमारे नतीजे दिखाते हैं कि लॉन्ग कोविड के लक्षण के रूप में क्रॉनिक फैटीग सिंड्रोम का कुल प्रचलन 45.2% है। कोविड-19 के बाद होने वाली यह थकावट व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर नकारात्मक असर डाल सकती है।”

द वायर ने 24 मार्च को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से पूछा कि क्या भारत में लॉन्ग कोविड की वर्तमान स्थिति पर कोई स्टडी की गई है। कई बार याद दिलाने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिला।

“स्नान करना भी पहाड़ जैसा काम”

आगरा की काउंसलर सीमा कोविड से पहले हाइकिंग और योगा की शौकीन थीं। पर लॉन्ग कोविड ने उनकी ज़िंदगी बदल दी।

“सब कुछ इतना दर्दनाक हो जाता है कि मुझे नहाने के लिए भी स्टूल चेयर इस्तेमाल करनी पड़ती है। कई बार तो नहाना छोड़ देना ही एकमात्र विकल्प होता है।”

यह समस्या सिर्फ सीमा की नहीं है – उनके जानने वाले कई लॉन्ग कोविड मरीज भी ऐसा ही करते हैं।

उनका जीवन हर पहलू में बदल गया है। यहां तक कि कपड़े पहनने की आज़ादी भी नहीं रही – तंग कपड़े उन्हें दर्द देते हैं। उनकी थकान के साथ-साथ अनियमित हृदयगति (अरिदमिया) भी है –

“मेरा दिल बहुत तेज़ धड़कने लगता है और जैसे ही उठती हूं, ब्लड प्रेशर गिर जाता है। सीढ़ियां चढ़ना या कुछ दूरी तक चलना बड़ा काम हो गया है।”

प्रज्ञा को यात्रा के दौरान व्हीलचेयर का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे वह बेहद अपमानित महसूस करती हैं –

“मैं अपने 20 के दशक में हूं, फिर भी एयरपोर्ट पर व्हीलचेयर लेनी पड़ती है। अगर न लूं तो सांस फूलने से दम घुटता है।”

वैज्ञानिक सहमत हैं कि समस्या असली है

हालांकि वैज्ञानिकों के बीच इसके कारणों पर एकमत नहीं है, पर इसके व्यापक प्रसार पर सहमति है। Journal of Medical Internet Research में छपे एक लेख के मुताबिक –

“यह चिंता का विषय है कि कुछ मरीजों में स्थायी थकावट हो सकती है। इससे उनके व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ स्वास्थ्य प्रणाली और समाज पर भी दीर्घकालिक असर पड़ेगा।”

मरीज कैसे मैनेज करते हैं दिनचर्या?

सीमा बताती हैं –

“यह दवा लेने में नियमितता और पेसिंग के सिद्धांत पर बहुत सख्ती से अमल करने का संयोजन है।”

वह दिन के हर घंटे को बहुत सावधानी से प्लान करती हैं, जिसमें बार-बार आराम भी शामिल है।

द वायर ने जिन पांच लॉन्ग कोविड मरीजों से बात की, उनमें चार को थकावट के साथ अरिदमिया भी था।

“नई” बीमारियां

कई लॉन्ग हॉलर्स कहते हैं कि उन्हें ऐसी बीमारियां हो गईं जो पहले कभी नहीं थीं। WHO के अनुसार, पोस्ट कोविड कॉम्प्लिकेशन्स में यह भी शामिल है कि रोगी में पहले न दिखी बीमारियां शुरू हो जाएं।

मीनाक्षी कहती हैं –

“मुझे पता है कि कोविड के बाद कुछ लोग डायबिटीज़, अल्ज़ाइमर और कैंसर तक से जूझ रहे हैं। लेकिन इनके लिए तो विशेषज्ञ हैं… हम लोगों के नए लक्षणों को कोई विशेषज्ञ तो दूर, कोई पहचान भी नहीं रहा।”

दिल की समस्याएं भी आम हो गई हैं। प्रज्ञा बताती हैं कि कुछ डॉक्टरों ने कहा कि शरीर में पुराने वायरस फिर सक्रिय हो जाते हैं, जिससे हृदय में समस्याएं और रक्त के थक्के बनने लगते हैं।

एक स्टडी के मुताबिक –

“कोरोनावायरस सीधे दिल पर हमला नहीं करता। बल्कि संक्रमण से पैदा हुई सूजन दिल को नुकसान पहुंचाती है, जिससे अनियमित धड़कन या हार्ट अटैक जैसे दीर्घकालिक समस्याएं हो सकती हैं।”

मीनाक्षी दो साल से ब्लड थिनर ले रही हैं।

सीमा को अब लगभग 70% फूड ग्रुप्स से एलर्जी है, खासकर ग्लूटेन से। उनका कहना है –

“एंटीहिस्टामीन तो रोज़ की दवा हो गई है।”

एक बड़ी समस्या उनकी लिवर की खराबी है। भारतीय डॉक्टरों ने उनकी समस्या नकार दी, लेकिन उनके भाई (जो इंग्लैंड में डॉक्टर हैं) ने लिवर की समस्या का निदान किया।

सोचने-समझने की क्षमता पर असर

सुबालक्ष्मी, जो पहले न्यू मैक्सिको में वन-विज्ञान और क्लाइमेट मॉडलिंग की वैज्ञानिक थीं, कोविड के बाद इतनी गंभीर दिमागी समस्याओं का शिकार हुईं कि उन्हें न्यू मैक्सिको यूनिवर्सिटी के न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट को दिखाना पड़ा। उन्हें दिमाग के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में नुकसान और सोचने की क्षमता में गिरावट का निदान मिला।

अब वे बेंगलुरु लौट आई हैं और अमेरिका लौटने की कल्पना भी नहीं कर सकतीं।

हैदराबाद के युवा आईटी इंजीनियर मधुर 2022 और 2024 में कोविड से संक्रमित हुए। अब तक वह अपने ही कमरे के स्विच भूल जाते हैं।

“किताब पढ़ना छोड़ दिया क्योंकि कहानी भूल जाता हूं। अब ऐप बनाना शौक है, जो दिमाग पर ज्यादा बोझ नहीं डालता।”

काम, सामाजिक जीवन और आर्थिक असर

कई मरीजों ने कहा कि उनके नियोक्ताओं ने उनकी स्थिति को समझा ही नहीं।
मीनाक्षी कहती हैं –

“कई को नौकरी छोड़नी पड़ी। किसी से सहानुभूति नहीं मिली।”

अमेरिका में सुबालक्ष्मी को डिसेबिलिटी इंस्योरेंस मिल गई। डॉक्टरों ने उनके काम के घंटे 15 प्रति सप्ताह तक सीमित करवा दिए। लेकिन भारत में उन्होंने पाया –

“यहां विकलांगता वही मानी जाती है जब आप कुछ भी नहीं कर सकते।”

सीमा, जो खुद काउंसलर हैं, पहले दिन में चार-पांच सेशन लेती थीं। अब अच्छे दिनों में एक ही हो पाता है।

प्रज्ञा का परिवार भी संकट में है – पिता कोविड से गुजर गए, मां बीमार रहती हैं। एकमात्र कमाने वाली वही हैं – वह मुंबई के एक शैक्षणिक संस्थान के लिए रिमोटली काम करती हैं।

“हार्ट रेट बहुत हाई रहता है। हालत और खराब हो रही है। प्रोडक्टिविटी भी बहुत गिर गई है।”

सीमा बताती हैं कि उनकी दवाओं और जांचों पर हर महीने 50–60 हज़ार रुपये खर्च होते हैं।

“मैं पहले जैसी मेहनत नहीं कर सकती। मेरी वजह से पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है।”

डॉक्टरों की बेरुखी

सभी मरीजों ने एक बात साझा की – डॉक्टरों द्वारा उनकी समस्याओं को खारिज किया जाना। चार को एंटीडिप्रेसेंट दे दिए गए, यह कहकर कि समस्या दिमाग में है।

मीनाक्षी कहती हैं –

“एक ऑर्थोपेडिक डॉक्टर ने कहा – अगर दर्द है तो इसका मतलब तुम जिंदा हो।”

प्रज्ञा बताती हैं कि दिल्ली के एक महंगे अस्पताल के डॉक्टर ने पूछा –

“क्या तुम्हें हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा था?”
ना कहने पर उन्होंने कहा – “तुम्हें तो कुछ नहीं है। मैं तुम्हें साइकियाट्रिस्ट को रेफर करूंगा।”

समाधान की जरूरत

Mount Sinai और Yale School of Medicine की एक स्टडी कहती है –

“डॉक्टरों को मरीजों की बात सुननी चाहिए और पर्सनलाइज्ड अप्रोच अपनानी चाहिए। लॉन्ग कोविड का कोई एक इलाज नहीं है।”

सुबालक्ष्मी कहती हैं –

“भारत में डॉक्टर खुद को भगवान समझते हैं। अमेरिका में वे कोलैबोरेटर होते हैं।”

हालांकि सभी डॉक्टर ऐसे नहीं हैं। सुबालक्ष्मी ने NIMHANS की डॉ. गीता देसाई का खासतौर पर आभार जताया, जिन्होंने उनके लक्षणों को गंभीरता से लिया, भले ही टेस्ट कुछ न दिखाते हों।

नोट: सभी मरीजों के नाम बदल दिए गए हैं। उक्त रिपोर्ट मूल रूप से द वायर वेबसाइट द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है.

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