हर बार जब कहीं कोई आतंकी हमला होता है या किसी हिंसा को मुस्लिम पहचान से जोड़ा जाता है, लाखों बेगुनाह मुसलमान खुद को एक असहनीय बोझ के नीचे दबा हुआ पाते हैं—जवाबदेही के बोझ तले। यह अपराधबोध का बोझ नहीं है, क्योंकि हमने कोई अपराध नहीं किया। यह उस उम्मीद का बोझ है कि हमें माफी मांगनी होगी, खुद को निर्दोष साबित करना होगा, और उस कृत्य से खुद को अलग करना होगा जिसे हम उतनी ही नफ़रत से देखते हैं जितना कोई और इंसान।
हमारी वफादारी और मानवता का सबूत मांगा जाता है—कभी छुपकर, कभी खुलेआम। उम्मीद की जाती है कि हम सोशल मीडिया पर निंदा करते हुए पोस्ट करें, बातचीतों में जोर देकर कहें कि हम हिंसा के खिलाफ हैं, कि “वे” (आतंकी) “हम” का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
अगर हम चुप रहते हैं, तो चुप्पी को भी स्वीकारोक्ति समझ लिया जाता है। हम हर जगह अपनी साख साबित करने की कोशिश करते हैं।
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दोस्ती में भी खटास आने लगती है। बरसों बाद दोस्त फोन कर कहते हैं, “ये सब नहीं होना चाहिए था,” मानो हमें पहले से मालूम था कि ऐसा कुछ होने वाला है। जहाँ कभी हँसी का सहज प्रवाह था, अब बातचीत में संकोच है, शिष्टाचार में बनावटीपन है। बुलावे गायब हो जाते हैं। हमारी ओर नज़रें ज़्यादा देर तक टिकती हैं—शायद हमारे भीतर किसी छुपे हुए गुस्से या अनकहे समर्थन को तलाशने के लिए, उस अपराध के लिए जिसे हम उनसे भी ज़्यादा शिद्दत से शोक करते हैं।
जनता की नजर और भी सख्त हो जाती है। जब कोई हमला होता है, मुसलमान सिर्फ़ डर के साथ नहीं बल्कि आशंका के साथ खबर देखते हैं। जानते हैं कि अगले दिन दफ्तर, क्लास या बाज़ार में उन्हें एक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस घृणा का संभावित विस्तार समझा जाएगा।
कोई परिचित पूछ सकता है, “तुम लोगों के बीच ऐसा क्यों होता है?”
कोई सहकर्मी कह सकता है, “सभी मुसलमान बुरे नहीं होते, लेकिन…”
और इसी तरह हमारी पूरी पहचान एक स्टीरियोटाइप में क़ैद कर दी जाती है।
पाहलगाम जैसे हमलों की त्रासदी हमारे लिए दोहरी होती है। एक तो निर्दोष जिंदगियों के जाने का दर्द, और दूसरा गहरा घाव यह कि हम—जिनका कोई संबंध नहीं—फिर भी दोषी ठहरा दिए जाते हैं।
हम अपने दिलों में पीड़ितों की कब्रों पर फूल चढ़ाते हैं, और साथ ही पीठ पर संदेह का अतिरिक्त बोझ उठाते हैं।
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हर घटना के बाद माफी की मांग और ज़्यादा तेज़ हो जाती है, और इसे सहन करना अब कठिन होता जा रहा है। आखिर एक पूरी क़ौम को बार-बार सार्वजनिक क्षमा याचना के मंच पर क्यों झुकना पड़ता है? क्यों हमें हर बार यह सिद्ध करना पड़ता है कि आतंकवाद हमारा मजहब नहीं है, जबकि हमारी ज़िंदगी—हमारी दोस्ती, हमारा काम, हमारी शांति की दुआएं—अपने आप में इसका प्रमाण होनी चाहिए?
आज़ादी के 75 साल बाद भी अगर हमें अपनी विश्वसनीयता साबित करनी पड़े, तो यह एक गहरी अन्यायपूर्ण विडंबना है।
निर्दोषों से गुनहगारों का हिसाब माँगना क्रूरता है।
संदेह के शिकार लोगों को अपराधी जैसा महसूस कराना गहरी अन्याय है।
दुनिया को समझना चाहिए:
हम जन्म से अपराधी नहीं हैं, और न ही हमें उम्रभर कटघरे में खड़ा रखा जाना चाहिए। हमारा दुख सच्चा है, हमारा भय सच्चा है, और हमारी शांति की चाह भी सच्ची है।
जब कोई त्रासदी घटती है, तो हम भी उतने ही आहत होते हैं—शायद और ज़्यादा—क्योंकि हम जानते हैं कि मातम सिर्फ मृतकों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि हमारी ज़िंदगी में भी हर नजर, हर झिझक भरे हाथ मिलाने और हर भरोसे की परीक्षा में ज़िंदा रहेगा।
अब वक्त आ गया है कि जो अपराधी हैं, उनसे नफ़रत की जाए, और जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया है, उनके प्रति सहानुभूति रखी जाए।
यह हम सभी के लिए एक बेहद दर्दनाक समय है, और हम भी बराबर दुखी हैं, पीड़ित हैं। कुछ लोगों के अपराध का बोझ पूरी क़ौम पर नहीं डाला जा सकता।
जब दुनिया हमें शक की तराजू पर तौलती है, तब सबसे गहरे घाव झेलने वाले भी इस त्रासदी को मजहब नहीं बल्कि इंसानियत के चश्मे से देखने का साहस कर रहे हैं।
अंततः, हर प्रकार की हिंसा मानवता के खिलाफ अपराध है और इसे हर इंसान को निंदा करनी चाहिए।
लेखक: सैयद सबा रिज़वी जामिया मिलिया इस्लामिया में राजनीति शास्त्र पढ़ाती हैं। इन्होंने मानवाधिकारों और इतिहास में परास्नातक किया है, यूजीसी नेट उत्तीर्ण किया है। वह दो साझा पुस्तकों की सह-लेखिका हैं और कई कविता प्रतियोगिताओं की विजेता रह चुकी हैं। समाज, राजनीति और प्रकृति पर अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करना इन्हें बेहद प्रिय है।
नोट- उक्त लेख मूल रूप से TOI वेबसाइट पर प्रकाशित हुई है.