30 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति (CCPA) ने घोषणा की कि आगामी जनगणना में जातिगत आंकड़े भी जुटाए जाएंगे। यह निर्णय संघ परिवार की पारंपरिक सोच से उलट था, जो हमेशा यह दावा करता आया है कि जातिगत जनगणना हिंदुओं को बांट देगी।
2023 के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद, कांग्रेस द्वारा इन राज्यों में जाति जनगणना को मुद्दा बनाए जाने पर मोदी ने कहा था—”कुछ लोग देश को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश कर रहे हैं। मेरे लिए केवल चार जातियां हैं: महिलाएं, युवा, किसान और गरीब।” इससे दो साल पहले मोदी सरकार ने लोकसभा में कहा था कि अनुसूचित जातियों के अलावा अन्य जातियों की गिनती करने की कोई योजना नहीं है।
तो फिर यह यू-टर्न क्यों?
इसका सबसे सीधा कारण बिहार चुनाव है। बिहार में जाति हमेशा से चुनावी राजनीति का प्रमुख घटक रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने 2022 में जातिगत सर्वे कराया था। उनकी पार्टी जेडीयू, जो संसद में बीजेपी के लिए अहम सहयोगी है, खुद को असमर्थ पाती अगर वह पूरी जाति जनगणना की मांग का समर्थन न करती। अगर मोदी सरकार इस पर सहमत नहीं होती, तो कांग्रेस-राजद गठबंधन इसे एक बड़े चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करता।
बीजेपी नेता, जैसे केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव अब दावा कर रहे हैं कि यह मोदी की “चालाक चाल” है और कांग्रेस की आलोचना कर रहे हैं कि उसने आज़ादी के बाद कभी जाति जनगणना नहीं कराई, जबकि 2011 की जनगणना में जातिगत आंकड़े जुटाए गए थे — जिन्हें मोदी सरकार ने अब तक सार्वजनिक नहीं किया है।
मध्य वर्ग और मोदी की बदलती रणनीति
जातिगत जनगणना के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि मोदी और मध्यवर्ग के बीच संबंध बदल रहे हैं। 1990 के दशक के मंडल आंदोलन के बाद ऊंची जातियों के मध्य वर्ग ने बीजेपी का रुख किया था, यह सोचकर कि वह आरक्षण को कमजोर करेगी। मोदी सरकार ने वास्तव में सरकारी नौकरियों की संख्या को इतना घटा दिया है कि कोटा के तहत मिलने वाली नौकरियां भी घट गई हैं। ऊपर से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के नाम पर 10% कोटा भी ऊंची जातियों को मिला।
इसके बावजूद आर्थिक मंदी और सरकारी क्षेत्र के संकुचन ने मध्य वर्ग की आकांक्षाओं को झटका दिया है। वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, देश की 10% सबसे अमीर आबादी 2022-23 तक 57.7% राष्ट्रीय आय पर कब्जा कर चुकी थी — जबकि 1982 में यह आंकड़ा सिर्फ 30% था। वहीं, शहरी गरीबों का मासिक औसत उपभोग ₹5,000 से भी कम है।
मारुति सुजुकी के चेयरमैन आरसी भार्गव ने भी कहा है कि भारत में सिर्फ 12% परिवार ही कार खरीदने की स्थिति में हैं। ऐसे में ‘नव-मध्यम वर्ग’ के लिए जातिगत पहचान के आधार पर लाभ की उम्मीद करना स्वाभाविक है — खासकर उन लोगों के लिए जो नीची जातियों से आते हैं।
हालांकि ऊंची जातियों का मध्य वर्ग इससे नाराज़ हो सकता है, लेकिन मोदी की हिंदुत्व नीति उन्हें अपने पक्ष में बनाए रखती है — और उनके पास कोई ठोस विकल्प भी नहीं है।
मोदी और गरीब वोटर
मोदी की जाति जनगणना की ओर वापसी का एक और बड़ा कारण है — गरीब वोटरों पर उनकी बढ़ती निर्भरता। CSDS-लोकनीति के अनुसार, बीजेपी को वोट देने वाले गरीबों का अनुपात 2009 में 16% से बढ़कर 2024 में 37% हो गया है। वहीं अमीर और गरीब वोटरों के बीच बीजेपी समर्थन में अब केवल 4% का अंतर है।
मोदी ने गरीबों को अपनी ओर आकर्षित किया है “गरिमा की राजनीति” के जरिए — जैसे उनके भाषणों और ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मेहनतकश जनता का महिमामंडन। इसके साथ ही, पीएम आवास योजना, उज्ज्वला योजना, जन धन योजना जैसी जनकल्याणकारी योजनाएं भी गरीबों को बीजेपी से जोड़ती हैं। CSDS के सर्वे बताते हैं कि इन योजनाओं का लाभ लेने वाले वोटर बीजेपी को ज्यादा वोट करते हैं।
जाति और हिंदुत्व का गठजोड़
जाति के आधार पर बीजेपी को वोट करने वालों में भी अब खास अंतर नहीं है — 2024 में ऊंची जातियों के 53% और निचली ओबीसी जातियों के 49% ने बीजेपी को वोट दिया। राम मंदिर आंदोलन और मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण ने जातिगत पहचान को कमजोर किया है।
CSDS के एक सर्वे के अनुसार, मुस्लिम विरोधी धारणाएं ऊंची जातियों और दलितों दोनों में समान रूप से प्रबल हैं। उदाहरण के लिए, 28.7% दलित मानते हैं कि मुसलमान भरोसेमंद नहीं हैं। ऐसे में अगर निचली जातियां पहले ही बीजेपी के साथ जुड़ चुकी हैं, तो जाति जनगणना का मुद्दा उनके समर्थन को और मजबूत कर सकता है।
लेकिन ये इतना आसान भी नहीं
पहली चुनौती है कि बीजेपी का ढांचा अभी भी ऊंची जातियों के दबदबे वाला है — पार्टी संगठन और उम्मीदवारों में ऊंची जातियों का प्रतिनिधित्व अधिक है। 2024 में एनडीए के 31% उम्मीदवार ऊंची जातियों से थे, जबकि इंडिया गठबंधन में यह आंकड़ा 19% था। अगर बीजेपी को ज्यादा निचली जातियों को टिकट देना पड़े, तो क्या पार्टी नेतृत्व में उसका समर्थन मिलेगा?
दूसरी चुनौती है विपक्ष की रणनीति। जैसे यूपी में समाजवादी पार्टी ने यादवों को कम और निचली ओबीसी जातियों को ज्यादा टिकट दिए — और यादवों ने पार्टी नहीं छोड़ी, बल्कि उनके साथ निचली ओबीसी जातियों ने भी वोट किया। अगर बिहार में राजद और कांग्रेस यही रणनीति अपनाते हैं, तो बीजेपी-जेडीयू गठबंधन का जाति जनगणना कार्ड कमजोर पड़ सकता है।
दीर्घकालिक प्रभाव
जातिगत जनगणना कोई अंत नहीं, बल्कि एक औज़ार है — जिसके ज़रिए सरकारी तंत्र और नौकरियों में जातिगत प्रतिनिधित्व का विश्लेषण किया जाएगा। इससे नए-नए सामाजिक न्याय के आंदोलन उभर सकते हैं। जैसे मंडल कमीशन के समय हुआ था, वैसे ही अब भी सवर्ण वर्ग इसका विरोध कर सकता है। संघ का मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने मंडल आंदोलन को ‘शूद्र क्रांति’ कहा था।
संभावना है कि भारतीय राजनीति का फोकस फिर से धार्मिक पहचान से हटकर सामाजिक-आर्थिक न्याय पर केंद्रित हो जाए। मोदी ने शायद इन दीर्घकालिक प्रभावों का अनुमान नहीं लगाया हो, लेकिन राजनीति में रणनीतिक चालें कई बार अप्रत्याशित और गहरे असर छोड़ती हैं।
लेखक परिचय: क्रिस्टोफ़ जैफ़्रेलो, CERI-Sciences Po/CNRS (पेरिस) में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। वे किंग्स कॉलेज लंदन में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्रोफेसर और ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज के अध्यक्ष हैं। यह लेख मूल रूप से द वायर वेबसाइट पर पब्लिश हो चुका है.