कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने पिछले दिनों विपक्षी खेमे को तब यकीनन राहत पहुंचाई होगी, जब उन्होंने स्पष्ट किया कि वह उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा नहीं हैं। जबकि इससे ठीक पहले इस बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने खुद ही कहा था, “क्या आप किसी और का चेहरा देखते हैं …? आप हर जगह मेरा चेहरा देख सकते हैं।” लेकिन अगले ही दिन स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने ऐसा इसके बारे में लगातार सवालों के कारण “चिड़चिड़ापन में” कहा था।
किसी की भी उनसे सहानुभूति हो सकती है। पिछले तीन संसदीय और विधानसभा चुनावों में केवल 6 से 7 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली पार्टी के मुख्यमंत्री के चेहरे के बारे में सवाल वास्तव में परेशान करने वाले हो सकते हैं। यूपी में कांग्रेस तीन विधायकों तक सिमट गई है- यानी 2017 के सात से भी नीचे। इसके अधिकांश पूर्व विधायकों ने इसे छोड़ दिया है। ऐसे में अपने दिल में उन्हें यूपी में कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को अवश्य जानना चाहिए।
शायद यही कारण है कि वह यूपी में अपने प्रयोग-महिला केंद्रित चुनाव अभियान-को लेकर इतनी उत्साहित नहीं हैं। वैसे वह की कारणों से चर्चा के केंद्र में आने में कामयाब रही हैं। जैसे पहले महिलाओं से उन्होंने वादा किया- सरकारी नौकरियों में 40 प्रतिशत आरक्षण, पुलिस चौकियों में 25 प्रतिशत, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की 50 प्रतिशत दुकानें, फोन, स्कूटर आदि। फिर कांग्रेस उम्मीदवारों की सूची आती है, जिसमें एक बलात्कार पीड़िता की मां, एक पूर्व-मिस बिकिनी इंडिया विजेता और एक टीवी एंकर जैसे नाम दिखते हैं। प्रियंका के ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ चुनावी नारे को खारिज आसानी से खारिज किया जा सकता है। उनके राजनीतिक विरोधी यूपी की महिलाओं से किए गए उनके वादों का उपहास भी उड़ा सकते हैं। कहना ही होगा कि चांद तोड़ लाने जैसा वादा करना आसान है, लेकिन उसे पूरा करने के लिए कांग्रेस को सत्ता में आना होगा। आखिर उत्तराखंड, पंजाब या गोवा में ऐसा वादा क्यों नहीं किया गया?
हालांकि, तथ्य यह है कि ऐसा लंबे समय बाद पहली बार हुआ है। महिलाओं के अधिकार और सशक्तीकरण पर शायद ही कभी किसी पार्टी के चुनाव अभियान का विशेष फोकस होता है। वैसे तो हर पार्टी महिला वोटरों को रिझाने के लिए कुछ न कुछ पेश करती है, हर नेता चुनावी भाषणों में उनके लिए सशक्तीकरण की बात करता है। लेकिन कुछ ही नेता या दल अपने चुनाव अभियान के केंद्र में महिलाओं के मुद्दों को लेकर चुनाव में जाते हैं। यही बात यूपी के चुनाव मैदान में उतरीं प्रियंका वाड्रा को विशेष बनाती है।
भाजपा का पुरुष प्रधान स्वरूप
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को यूपी में प्रियंका वाड्रा के महिला केंद्रित चुनाव अभियान की परवाह नहीं है। यूपी में कांग्रेस लगभग विलुप्त हो चुकी है और उनके संदेश को मीडिया की सुर्खियों से परे ले जाने के लिए जमीनी स्तर पर कोई संगठनात्मक तंत्र नहीं है। हालांकि यदि प्रियंका वाड्रा अपने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ वाले अभियान को यूपी चुनाव के बाद भी आगे बढ़ाती हैं, तो भाजपा के लिए यह परेशान वाली बात हो सकती है। लोकनीति-सीएसडीएस के वर्षों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि भाजपा को इस तथ्य के बावजूद “लैंगिक नुकसान” है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल्याणकारी योजनाओं ने महिला मतदाताओं के बीच बड़ी पैठ बनाने में मदद की है।
सच तो यह है कि मोदी फैक्टर ने भले ही बीजेपी के लिए महिला वोटरों को आकर्षित किया हो, लेकिन पार्टी ने इसे उनकी पसंद की पार्टी बनाने के लिए कुछ खास नहीं किया। बीजेपी के संगठनात्मक (सत्ता) पदानुक्रम में महिलाओं को बहुत कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है, भले ही पीएम मोदी उज्ज्वला और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी महिला-केंद्रित सरकारी योजनाओं का कितना भी प्रदर्शन करें। पिछले 41 सालों में बीजेपी के दर्जन भर अध्यक्षों में एक भी महिला नेता नहीं रहीं।
30 सदस्यीय केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल दो महिलाएं हैं- वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी। भाजपा के एक दर्जन मुख्यमंत्रियों में एक भी महिला नहीं है। बिहार में अब तक के सात डिप्टी सीएम में सिर्फ एक महिला रेणु देवी हैं। सात सदस्यीय सर्वशक्तिमान संसदीय बोर्ड, पार्टी का शीर्ष निर्णय लेने वाला निकाय, एक विशेष रूप से पुरुष नेतृत्व है। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 36 प्रमुखों में सिर्फ एक महिला है – मणिपुर की शारदा देवी। जब तक पीएम मोदी स्टार आकर्षण बने रहेंगे, भाजपा को अपने संगठनात्मक, निर्णय लेने वाले पदानुक्रम में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के बारे में परेशान नहीं होना चाहिए।
लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि पीएम द्वारा बहुत बड़ा बदलाव किए जाने के बावजूद वोटिंग पैटर्न की बात करें तो बीजेपी में लैंगिक अंतर है। कल्पना कीजिए कि बीजेपी का क्या होगा जब मोदी मैदान से हट जाएंगे।
स्वघोषित राष्ट्रवादी और हिंदुत्व का पुरुष गढ़ पार्टी का आधार रहा है। महिला वोट हासिल करना मोदी (या उनकी योजनाओं) पर निर्भर करता है। मोदी के बाद जब महिला मतदाताओं की बात आती है तो खेल बहुत खुला होता है। वहीं प्रियंका गांधी वाड्रा का राजनीति में महिला केंद्रित प्रयोग गेम चेंजर साबित हो सकता है।
प्रियंका का गेम चेंजिंग प्लान
जब लोकतंत्र में महिलाओं के हित की बात आती है तो भारत ने एक लंबा सफर तय किया है। 1952 के चुनावों में भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन मतदाता सूची में खुद को ‘ए की मां’ या ‘बी की पत्नी’ के रूप में पंजीकृत करने की प्रथा को लेकर ‘नाराज’ थे। उन्होंने अधिकारियों को महिलाओं के नाम “ऐसे मतदाताओं के विवरण के स्थान पर” रखने का निर्देश दिया। बहरहाल कुछ 28 लाख महिला मतदाताओं (176 मिलियन भारतीयों में से) को सूची से हटाना पड़ा। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इंडिया आफ्टर गांधी में उल्लेख किया है, “उनकी चूक पर परिणामी हंगामे को सेन ने एक ‘अच्छी बात’ माना, क्योंकि इससे अगले चुनाव से पहले पूर्वाग्रह को दूर करने में मदद मिली।”
2019 के लोकसभा चुनावों में, जैसा कि मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने एक वेबिनार में कहा, भारत की आजादी के बाद से सात दशकों और 17 लोकसभा चुनावों के बाद, 67.18 प्रतिशत महिला मतदाताओं की भागीदारी 67.01 प्रतिशत पर पुरुष भागीदारी से आगे निकल गई।
इस मामले में यह मील का पत्थर साबित हो सकता है कि प्रियंका वाड्रा अपनी पार्टी के पुनरुद्धार के प्रयासों में एक नया चरण शुरू करने की कोशिश कर रही हैं। एक और गांधी विचार को खारिज करना सुविधाजनक है। महिला सशक्तीकरण की बात करें तो नई बोतल में पुरानी शराब है। फिर भी, प्रियंका का महिला-केंद्रित चुनाव अभियान बाहुबली राष्ट्रवाद और आक्रामक हिंदुत्व के इर्द-गिर्द बनाए गए भाजपा के चुनाव अभियानों के लिए एक अच्छा प्रतिकार प्रतीत होता है। राहुल गांधी और उनकी पार्टी के सहयोगियों ने राजनीतिक कल्पनाशक्ति की पूरी कमी दिखाई है, क्योंकि वे मोदी या योगी आदित्यनाथ से बड़े हिंदू नेता के रूप में उभरने की कोशिश करते हैं। भाजपा से राष्ट्रवाद की तख्ती छीनने की उनकी कोशिशें बहुत ही गलत और भोली हैं। जैसे-जैसे भाजपा गोलपोस्टों को शिफ्ट करती जा रही है, कांग्रेस नेता हड़बड़ाते और फुसफुसाते हुए रह गए हैं।
इसी पृष्ठभूमि में प्रियंका वाड्रा अपना महिला केंद्रित चुनावी मुद्दा लेकर आई हैं। यह राजनीति में कोई नई खोज नहीं है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इसे पेश किया है, वह निश्चित रूप से इसे आकर्षक बनाता है। यूपी में कांग्रेस की महिला रैलियों में भारी उपस्थिति इसका प्रमाण है।
वैसे भी, कांग्रेस के पास अब दलितों, उच्च जातियों और आदिवासियों के बीच अपने पारंपरिक समर्थन आधार के साथ किसी भी सामाजिक समूह की निष्ठा नहीं है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और क्षेत्रीय संगठनों में विभाजित हैं। अल्पसंख्यक समुदाय अब कांग्रेस से उम्मीदें नहीं लगा रहे हैं। कांग्रेस केवल इन समूहों के अपने वर्तमान राजनीतिक संरक्षकों के मोहभंग पर ही अपनी उम्मीदें टिका सकती है। संक्षेप में, कहीं न जाने वाले मतदाताओं को छोड़कर, आज उसके पास कोई वोट बैंक नहीं है। क्या प्रियंका का ‘महिला जुआ’ कांग्रेस के लिए एक नई शुरुआत हो सकती है? केवल समय ही बताएगा।