नई दिल्ली: राजस्थान में संकट के बीच गहलोत खेमे द्वारा बगावत उतना आसान नहीं है, जितना पिछले साल पंजाब में देखा गया था। जहां बड़ी आसानी से मुख्यमंत्री के रूप में अमरिंदर सिंह को बदल दिया था। राजस्थान का संकट इस बढ़ते विश्वास को ही मजबूत करता है कि एक कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व दरअसल राज्य के क्षत्रपों को स्थानीय इकाइयों पर नियंत्रण के लिए मजबूत ही बनाता है।
कांग्रेस को चुनावी जीत दिलाने के लिए बेताब राहुल गांधी की राज्यों में नेतृत्व बदलने वाली भव्य योजना (grand scheme) का अब तक मिलेजुले ही रिजल्ट देखे गए हैं। इसमें राजस्थान का झटका सबसे मजबूत झटका है, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत परम वफादार (ultimate loyalist) रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से ऐन पहले वह नेतृत्व को चुनौती देने वाले विद्रोही बन (being a rebel who defied the leadership) गए हैं। पार्टी में प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट को उत्तराधिकारी नहीं बनाने की गहलोत की शर्त ने संकट पैदा कर दिया है। दरअसल कांग्रेस को यह विश्वास ही नहीं था कि एक सौम्य गांधीवादी, जो नेतृत्व के प्रति वफादारी की कसम खाता रहा है, उसके अधिकार को चुनौती दे (Congress did not believe that a mild Gandhian who untiringly swears loyalty to the brass could challenge its authority) सकता है। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि गहलोत का विधायकों के बीच दबदबा है। इतना कि विधायकों के भारी समर्थन के आधार पर वह कुछ भी मनवाने की कोशिश कर सकते हैं।
ठीक एक साल पहले की पंजाब की घटनाओं को याद करें। सितंबर 2021 की आधी रात को तख्तापलट के दौरान तेजतर्रार अमरिंदर सिंह भी कुछ नहीं कर सके थे। तब छह महीने में होने वाले चुनावों में अपनी संभावनाओं को लेकर चिंतित पार्टी विधायकों के बीच मजबूत होते विपक्ष को देखते हुए सिंह को नेतृत्व की इच्छाओं के आगे झुकना पड़ा। सिंह बाद में भाजपा में शामिल हो गए। यह बताता है कि उन्होंने भी विद्रोह किया होगा, लेकिन विधायक दल में दबदबा नहीं रहने के कारण उनको घुटने टेकने पड़े। इसलिए जब गांधी भाई-बहनों ने उनके कट्टर और उत्साही नवजोत सिद्धू को राज्य इकाई के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया तो वह कुछ नहीं कर सके।
और, गहलोत यहीं पर सिंह से बीस साबित हुए। इस कड़ी में छत्तीसगढ़ में अगस्त 2021 के आसपास ऐसी ही सुगबुगाहट देखी गई। तब सीएम भूपेश बघेल की जगह उनके प्रतिद्वंद्वी टीएस सिंहदेव को बैठाने की कोशिश की गई। आक्रामक और तेजतर्रार बघेल ने राहुल के साथ दो दौर की बातचीत की। उनकी पैरवी के लिए राज्य के विधायकों को भी दिल्ली भेजा गया था। यानी एक ऐसा कदम, जिससे नेतृत्व को “परेशान” करने का दावा किया गया था। लेकिन इस मुद्दे के बारे में फिर कुछ नहीं सुना गया और बघेल गांधी परिवार के करीबी बने रहे। यह कभी सामने नहीं आया कि क्या वास्तव में उनकी जगह लेने के लिए किसी को आगे किया गया था, या मुख्यमंत्री द्वारा शक्ति प्रदर्शन के तहत नेतृत्व को झुका दिया गया था। इसके बाद उन्होंने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है।
Also Read: अबकी तीन-तरफा लड़ाई की बारी